प्रेम और साधन
साधन और प्रेम
कोई ताला बन्द हो तो हम चाबी से खोलते है |
परन्तु एक चाबी से ना खुलें यानी गल्त चाबी लगा दी ,
जब तक सही चाबी ना लगाये ताला खुल जाता है |
प्रेम ही सही मार्ग है , ईश्वर का | और मार्ग दुष्कर है ,
पहुँचते नहीं या थक हार कर समर्पण करना ही होता है |
आत्मा प्रयास करें तो सही वरना नहीं | आत्मा का प्रयास
प्रेम ही होगा | क्युं वो परमात्मा का अंश है उनसे ही छंटा है |
उसमें स्वभाविक तडप है | लम्बी यात्रा कर वह लौटना
चाहती है | यें तडप प्रेम है |
यें शरीर मैं नहीं , ना ही हमारा नाम | हम तो आत्मा है ...
आत्मा को सजीव करियें | बिते दिनों किसी ने अपने भीतर
आवाज सुनी वो डरा फिर सबसे कहने लगा कि भीतर कुछ
बोलता है | किसी शिक्षित ने कह दिया पागल हो गये हो !!
आत्मा को सुनना ही अजीब लगा | जिसने आत्मा को सुना
ही हीं वें कह दिये कोई है ही नही भीतर | आत्मा को जानना
पहली कक्षा है | मैं आत्मा ही हूँ कोई शरीर नहीं शरीर मेरा
उपहार है प्रभु का दिया यें मानना अग्रिम स्थिति |
मेरी आत्मा भी यानी मैं पुर्ण जीव-आत्मा सहित
उनका हूँ | याद रखिये सशरीर आप उनके ही है | ना सौंपे तो भी |
होता क्या है कि माना जाता है आत्मा प्रभु की है |
इसे सौंपना है ... शरीर नहीं | शरीर तो माध्यम है मिलन का |
पहला विचार तो यें कि जिसे आप मैं कहते है क्या वो
आपकी आत्मा ही है ...दूसरा यें कि आप आत्मा हो तो
शरीर क्युं हुये ... सुक्ष्म को स्थुल क्युं मिला | यहाँ से शुरु होती है
मोक्ष की चाह | मुझे मुक्त होना है शरीर साधन है मैं आत्मा |
मुझे योनियों में जन्म नहीं लेना , मोक्ष चाहिये | मोक्ष ,
एक चाह ही है | मैं पुछता हूँ क्या चाहिये ?
उत्तर- कुछ नहीं बस मोक्ष !!
मोक्ष लेकर क्या करोंगें ?
उत्तर - सोचा नहीं ...
या आनन्द है वहाँ |
या योनियों से मुक्त होना है |
कैसे पाओगें मोक्ष ?
उत्तर - किसी भी तरह ... जप-तप-योग! जैसे भी ...
कहीं भी भगवत् - प्रेम नहीं | बात हो ही स्वयं की रही है |
वो केवल माध्यम है ,इसलिये बहुत से अपने प्रिय देव को
इष्ट कहते है | इष्ट जिससे कुछ अभिष्ट मिलें | इष्ट पक्का
करो सिद्ध हो जाओ | इष्ट को नहीं पकाना , स्वयं पकना
है | वें तो पके हुये ही है | एक तो इष्ट शब्द में ही लालच है
... प्रेम नहीं | फिर भाषा में भी मैं ना टुटा , कोई इष्ट मजबुत
कर रहा है कोई पक्का ... कोई यें नहीं कहता उनके योग्य हो
रहा हूँ | कोशिश में हूँ कि उनकी कृपा हो | कृपा - प्रेमियों का
शब्द है | या तो सिद्ध हो जाओ अपने जोर से | या कृपा पाओ
उनके प्रेम से |
जिन्हें मोक्ष की भी चाह है वहाँ प्रेम नहीं | जहाँ प्रेम है वहाँ
अपनी कोई चाह नहीं मिला सब कुछ कृपा-प्रसाद | जप होते
है या तो आत्मा ही करती है शरीर नहीं | या शरीर ही आत्मा नहीं |
जप स्थुल-सुक्ष्म दोनों ही कर सके तो आनन्द उसी क्षण | यें आनन्द
ही सच्चिदानन्द की :अनुभुति है | सत् - चित् हुआ कि आनन्द |
अब जप गिनने का क्या महत्व | किसी ने कहा कितने जप करें ?
कह दिया जब तक प्यास ना मिटें | प्यास और जप का क्या सम्बन्ध ?
वहीं जो चाक और भट्टी में है | वेदना नहीं करुणा नहीं तो प्रयास
भी कहा हुआ |करुणा की एक पुकार बहुत है , लाखों बार की
चाह के नाम में | हाँ यें सच है भजो कैसे भी चाह से , लालच से ,
डर से , या बहाने से पर भजो | पर ऐसा नहीं है कि ऐसे ही भजो ,
होता तो ऐसा ही है | सौदा लिये सब रहते है तैयार | सब याद रखते
है कितना जप किया कितना पाठ | किसे देना है हिसाब | अरे उसे
प्रेम करो | रूप - गुण पर मर मिटो | वहाँ अलग - अलग कोई ना
होगा वहाँ तो एक प्रेम का और करोडों गिनती का साथ होंगें | हाँ
प्रेमी की स्थिति वहाँ भी यहीं होगी कि मुझे तो तुम्हारा प्यार चाहिये
ये स्वर्ग नहीं |
ध्यान हो तो शंख सा | शंख में जो जीवन होता है उसे कुछ लोग
घोंघा तो कुछ और भी नाम से जानते है पर उसका ध्यान देखिये |
खो जाता है लहरों की आवाज में ऐसा खोता है कि मर कर वो ना
रहे तो भी शंख से वही आनन्द जो वो पा रहा था सुनाई दें | शंख
को कान पर लगाने से उसमें से लहरों की समुन्द्र के उन्माद की
आवाज आती है | लगा कर देखिये ... यही असली शंख की पहचान
भी है | सोचिये उस छोटे से जीव ने कैसा प्रेम किया होगा कि भर लिया
खुद में सागर को | सागर में वो डुबा रहा ... सागर उसमें डुबता रहा |
वो ना रहा आवाजें रह गई | यें है ध्यान , यें है जप | हदों के पार ...
प्रेम होता ही हदें तोड कर है ... मैं (अहम्) की सारी हदें भुला कर |
किसी की हड्डी से उसके ईश्क़ का पता नहीं लगता | पर यहाँ लगता है |
उसका यही एकाग्र है कि वो भगवान की आरती उतारता है | दृष्टी दोष
हटाता है | एक और बात आप उसे कान के लगा कर सुनोगें तो वो अपनी
करुणा - अपना प्रेम रहस्य कहेगा | उसे बजाने लगे तो वहीं करुणा आनन्द
बन संगीत बन जायेगी | पुकारेगा वो आपकी सांसों से | उसकी यें आवाज
भी गहराईयों में ले जायेगी | वो कभी बाहर का संगीत ना सुना पर संगीत
मय हो जाता है | यें उसका आनन्द है | आनन्द और प्रेम (करुणा) साथ
ही अनुभुत होते है | उसने जो पाया वो भीतर है उसने जो अनुभुत किया
वो उसका स्वर | यही संत वृति है |
आंख खोलने से जो टुट जायें वो ध्यान नहीं | ध्यान वो है
जो टुटे ही ना | आँखों के खुल जाने पर भी जो ध्यान
ना हटा पाये वो ध्यान है | वहीं जारी रहे छुटे ना मानो
वो छोडना ही ना चाहे | सर्वत्र रहे , वही ध्यान है और
यहीं प्रेम और यहीं अध्यात्म | जो लगन टुट सके वो
प्रेम नहीं | टुटे ना छुटे ना शंख की तरह | वहीं प्रेम |
सुमिरन ऐसा हो कि जो माला के अधीन ना हो | बैठने
की दशा के अधीन भी नहीं , कई कहते है कि हम बैठ
कर ही माला लेकर ही जप कर सकते है | क्युं क्या
जप आपकी स्थिति या माला करती है | आप करों |
हर पल | प्रेम में यें भी करना नहीं होता ...
बहुत ही विरल स्थिति है सहज उपहार में मिल
जाती है | प्रेम है तो हर पल का नाम है , यादें है ,
बातें है , क्योंकि रहा जा ही नहीं सकता | विकल्प
ही नहीं | जब - तब वहीं | जप करना है तो उसे ऐसा
सहज करें जैसे सांसे खुद ब खुद | कोई अतिरिक्त
प्रयास नहीं | जैसे पलकों का झपकना कोई आडम्बर
नहीं | स्वतंत्र क्रिया | जप जो करना पडे वो नहीं मैं
तो प्रेम में उसे जप कहुगाँ जब उसे रोकना पडें और
रुके ना | तोडना पडें तो टुटे ना | एक आवरण जिससे
कोई आपको निकालें तो लगे मृत्युदंड भी सस्ता | यें प्रेम है
चलियें एक कहानी और ...
बस याद रखें निश्चल प्रेम के लिये ईश्वर सदैव तैयार है ...
हम नहीं | सारे दोष उन पर ना डाले ... सच्चे प्रयास करें
पागये उन्हें तो शर्मसार हो जाओगें जब वें कहेंगें कि हर
पल तुझे चाहा ... बांह पसारे खडा रहा ... युग लग गये
तुझे आने में | पर आना तो था ही तुझे |
इसलिये ईश्वर की और हमारे एक कद़म पर वें साठ पग
चलते है क्योंकि उनका प्यार बहुत है अपनी और आता
देख वें दौड पडते है | तुम होकर जीने लगते है | और हम
देखते रह जाते है | कई बार वें अपना दृष्टिकोण-अपनी
भगवत्ता तक सौंपने को आतुर रहते है | प्रेमी कुछ नहीं
चाहता सिवाय उनके सुख के और इस मामले में भी
अधिक प्रेमी वही है ... प्रेम में उनका कोई सानी नहीं है |
ईश्वर प्रेम से बडी कोई मुक्ति नहीं | कोई मोक्ष नहीं | मर
कर क्या कर सकोंगें उस लोक में कोई भाव ही नहीं
वहाँ रो भी ना सकोंगें | जो विचार किया हो जायेगा |
सेवा भी ना रहेगी | साधन युक्त भक्ति किये तो साधनहीन
वहाँ क्या करोंगें | साधन हीन हो जाओ अभी से | हर क्रिया
सौंप दो , मन सौंप दो , हर बात सौंप दो | मनसा वाचा कर्मणा
समर्पण | बस जो शुरु हुआ यहीं जीवन है | यहीं मुक्ति धारणाओं
से मुक्ति | यहीं मिलन बुंद - सागर का | यहीं प्रेम ईश्वर का ,
हमारा प्रेम भी झुठा होगा | सब कहेंगे तुम्हें ईश्वर से प्रेम हो
ही नहीं सकता | हाँ ,नही हो सकता हमारा प्रेम भी सहज
नहीं दोष है उसमें प्रेम उनका ही रहने देना अच्छा है | प्रेम
के पथ पर सब उनकी कृपा से है | क्योंकि साधन और प्रयास
बिना उनकी अनुभुति प्रेम से ही है | सच्चा प्रेम है अहंकार ना
होगा , बल्कि कष्ट होगा | उनकी पीडा सही ना जा सकेगी |
... कहीं ना कहीं ऐसा होता रहेगा कि करुणा बनी रहेगी |
अहंकार ना होगा | जो होगा उनके हेतु होगा |
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नानक एक गांव में ठहरे हैं। और नानक कहते हैं, न कोई हिंदू है,
न कोई मुसलमान है। तो गांव का मुसलमान नवाब नाराज हो गया।
उसने कहा, बुला लाओ उस फकीर को। कैसे कहता है...? किस
हिम्मत से कहता है कि न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है?
नानक आए। उस नवाब ने पूछा कि मैंने सुना है, तुम कहते हो,
न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान? नानक ने कहा, हां, न कोई हिंदू है,
न कोई मुसलमान। तो तुम कौन हो? तो नानक ने कहा कि मैंने बहुत
खोजा, बहुत खोजा। चमड़ी, हड्डी, मांस, मज्जा, वहां तक तो मुझे लगा
कि हां, हिंदू भी हो सकता है, मुसलमान भी हो सकता है। लेकिन वहां
तक मैं नहीं था। और जब उसके पार मैं गया, तो मैंने पाया कि वहां तो
कोई हिंदू-मुसलमान नहीं है!
तो उस नवाब ने कहा कि फिर तुम हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने
चलोगे? क्योंकि जब कोई हिंदू-मुसलमान नहीं, तो मस्जिद में जाने में
एतराज नहीं कर सकते हो। नानक ने कहा, एतराज! मैं तो यह पूछने ही
आया था कि मस्जिद में ठहरूं, तो आपको कोई एतराज तो नहीं है?
नवाब थोड़ा चिंतित हुआ, एक हिंदू कहे! पर उसने कहा कि देखें,
परीक्षा कर लेनी जरूरी है। मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए ले गया
नानक को। नवाब तो मस्जिद में नमाज पढ़ने लगा, नानक पीछे खड़े
होकर हंसने लगे। तो नवाब को बड़ा क्रोध आया। हालांकि नमाज
पढ़ने वाले को क्रोध आना नहीं चाहिए। लेकिन नमाज कोई पढ़े तब न!
बड़ा क्रोध आया और जैसे क्रोध बढ़ने लगा, नानक की हंसी बढ़ने लगी।
अब नमाज पूरी करनी बड़ी मुश्किल पड़ गई। तबियत तो होने लगी,
गर्दन दबा दो इस फकीर की। लेकिन नमाज पूरी करनी जरूरी थी।
बीच में तोड़ा नहीं जा सकता नमाज को। तो जल्दी पूरी की, जैसा कि
अधिक लोग करते हैं।
पूजा अधिक लोग जल्दी करते हैं। इतने जल्दी करते हैं कि कोई भी
शार्ट कट मिल जाए, तो जल्दी छलांग लगाकर वे पूजा निपटा देते हैं।
लांग रूट से पूजा में शायद ही कोई जाता हो। शार्ट कट सबने अपने-
अपने बनाए हुए हैं, उनसे वे निकल जाते हैं, तत्काल! बाई पास! पूजा
को निपटाकर वे भागे, तो फिर लौटकर नहीं देखते पूजा की तरफ।
एक मजबूरी, एक काम, उसे निपटा देना है!
नवाब ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की और आकर नानक से कहा
कि बेईमान निकले, धोखेबाज निकले। तुमने कहा था, नमाज में
साथ दूंगा। साथ न दिया। नानक ने कहा, मैंने कहा था नमाज में
साथ दूंगा, लेकिन तुमने नमाज ही न पढ़ी, साथ किसका देता? तुम
तो न मालूम क्या-क्या कर रहे थे! कभी मेरी तरफ देखते थे। कभी
नाराज होते थे। कभी मुट्ठियां बांधते थे। कभी दांत पीसते थे। यह
कैसी नमाज पढ़ रहे थे? मैंने कहा कि ऐसी नमाज तो मैं नहीं जानता।
साथ भी कैसे दूं! और सच, भीतर तुमने एक भी बार अल्लाह का नाम
लिया? क्योंकि जहां तक मैं देख पाया, मैंने देखा कि तुम काबुल के
बाजार में घोड़े खरीद रहे हो!
नवाब तो मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, क्या कहते हो! काबुल के
बाजार में घोड़े! बात तो सच ही कहते हो। कई दिन से सोच रहा हूं कि
अच्छे घोड़े पास में नहीं हैं। तो नमाज के वक्त फुरसत का समय मिल
जाता है। और तो काम में लगा रहता हूं। तो अक्सर ये काबुल के घोड़े
मुझे नमाज के वक्त जरूर सताते हैं। मैं खरीद रहा था। तुम ठीक कहते
हो। मुझे माफ करो। मैंने नमाज नहीं पढ़ी, सिर्फ काबुल के बाजार में
घोड़े खरीदे।
आप जब प्रभु का स्मरण कर रहे हैं, तो ध्यान रखना, प्रभु को छोड़कर
और सब कुछ कर रहे होंगे। प्रभु को तो आप जानते नहीं, स्मरण कैसे
करिएगा? ध्यान कैसे करिएगा?
कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष--यह शर्त है ध्यान की, इतनी शर्त पूरी हो,
तो ही प्रभु का ध्यान होता है, नहीं तो ध्यान नहीं होता। हां, और चीजों का
ध्यान हो सकता है। प्रभु का ध्यान, उसकी शर्त--समत्व को जो उपलब्ध
हुआ, निष्कंप जिसका चित्त हुआ, ऐसा व्यक्ति फिर एकांत में, अंतर-गुहा
में प्रभु को ध्याता है। फिर प्रभु ही प्रभु चारों तरफ दिखाई पड़ता है। खुद
तो खोजे से नहीं मिलता, प्रभु ही प्रभु दिखाई पड़ता है। उसकी ही स्मृति
रोम-रोम में गूंजने लगती है। उसका ही स्वाद प्राणों के कोने-कोने तक
तिर जाता है। उसकी ही धुन बजने लगती है रोएं-रोएं में। श्वास-श्वास
में वही। तब ध्यान है।
ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम आत्मसात होकर एक हो जाएं।
नहीं तो ध्यान नहीं है। अगर आप बच रहे, तो ध्यान नहीं है। ध्यान का
अर्थ है, जिसके साथ हम एक हो जाएं। ध्यान का अर्थ है कि कोई
आपको काटे, तो आपके मुंह से निकले कि प्रभु को क्यों काट रहे
हो! ध्यान का अर्थ है कि कोई आपके चरणों में सिर रख दे, तो आप
जानें कि प्रभु को नमस्कार किया गया है। सोचें नहीं, जानें। आपका
रोआं-रोआं प्रभु से एक हो जाए। लेकिन यह घटना तो एकांत में
घटती है। इनर अलोननेस, वह जो भीतरी एकांत गुहा है, जहां सब
दुनिया खो जाती, बाहर समाप्त हो जाता। मित्र, प्रियजन, शत्रु सब
छूट जाते। धन, दौलत, मकान सब खो जाते। और आखिरी पड़ा
सत्यजीत "तृषित"
9829616230
मुझमें बहुत दोष है | आईयें सत्संग से सुधारें | वाट्सएप से जुडे |
धर्म-आचरण - I am browsing [धर्म-आचरण]. Have a look at it! https://m.facebook.com/profile.php?id=755976087766359&refid=18&_ft_&__tn__=C
धर्म-आचरण पर 1200 करीब लेख हो गये है | पढियें , मेरा व्यक्तिगत
स्वार्थ नहीं है | बस आनन्द वर्षा ...
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