भोग-प्रसाद
***हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं***
क्या भगवान भोग लगाते है ?
प्रसाद क्या है ?
प्रसाद के रुप में हम केवल भगवान से निवेदन किये हुये भोग
को मानते है | भगवान को अर्पित
भोग-नैवेद्य |
सच तो यें है प्रभु जो भी दें वहीं
प्रसाद है | उनकी कृपा , प्रतिपल का
जीवन , जीवन-ऊर्जा , प्राणवायु ,
ईश्वर की अनुभुति , ईश्वर का सुमिरन
सभी प्रसाद है | जहाँ तक हमें जाना है , जहाँ से हम आये है यें यात्रा , यें
मानव देह यें भी प्रसाद ही है |
प्रसाद के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं , क्योंकि सभी कुछ उनका है | जो भी
व्यवस्था जीवन पथ को प्रशस्त कर रही हो वो प्रसाद ही है |
अगर आप विकट परिस्थिति , दु:ख में है तो यें भी हरि प्रसाद है आप हृदय से हरि सुमिरन कर सकें इसलिये |
प्रसाद का अर्थ हुआ प्रभु से मिला उपहार | और आप ध्यान से देखें तो
इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं ...
भोग -
भगवत्-सेवा में भोग का विशेष महत्व है | भाव-भोग-श्रृंगार-राग यें सेवा के विशेष रुप रहे है | भोग में भाव जैसा हुआ वैसा ही प्रभु ने पा लिया |
हम सभी भोग लगाते ही है | परन्तु
क्या हमारा लगाया भोग वें पाये है |
परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है तो लगाया भोग
किसी भी तरह प्रकृति स्वरूप में पा ही
लेते है | भले वायु ही हो या अग्नि ही |
या गौ माँ || अथवा संत-भिक्षुक... पिप्लिका (चींटीं) ही हो |
संत कहते है प्रभु सदैव ही लगाया गया भोग अंश मात्र पाते ही है | इससे अधिक भाव-करुणा-प्रेम से |
बहुत से लोग कहते है कि भगवान ही
खाने लगे तो हम क्या खायेंगें |
उन्हें निवेदन कर दुं वें प्रत्यक्ष खाते
तो आप खिलाते ही ना || आप रबडी का भोग लगाते है क्योंकि वें नहीं खाते |
जहाँ वें पाते या आपको बांटना भी होता
तो गुड-पताशा ही होता |
भक्तों के प्रसंग जो हमने सुने वें तो कहते है कि प्रभु प्रेम से निवेदन किया
सब कुछ प्रभु ने पाया , सुखे चने से लेकर केले के छिलके , झुठे बैर , जैसा-तैसा हो वैसा पा लिये बस प्रेम का छोंक होना चाहिये |
प्रेम से भोग लगाने के लिये आपका प्रेम निश्चल होना आवश्यक है |
मानस शुद्ध चाहिये | भुल जाना होगा
भगवान है वें , बस एक नाता हो स्नेह का , फिर यें भी भुलना होगा कि वें नहीं
पाते | हम यें भुला नहीं पाते कि वें नहीं पाते | हमारे द्वारा पुर्व में तय कर लिया जाता है | उन्हें दिखाना भर है और हमें ही पाना है | परिवार में 5 सदस्य है तो
5 का ही भोजन बनता है , उनके लिये
बनता ही नहीं , बस दिखा दिया जाता है
हम कहते है प्रभु कौनसा पाते है ,
आप बनाईये तो सही कैसे भी मन-प्रेम को झोंक दिजिये | सदस्यों के
अतिरिक्त भोजन हो | प्रतिक्षा हो वें
अपना हिस्सा पा लेंगें | अगर उनके हेतु बना है तो ... किसी भी रूप में |
वें बडे कोमल है वें नहीं पाते क्योंकि
आपके मन में आया ही नहीं वें भी
पायेंगें | मैंनें अपने घर पर कहा है
दो थाली भोग सदस्यों से अतिरिक्त
ही हो | ऐसे जीवन की आस है नित्य
उन्हें अपने हाथ से पवाया जायें |
पकाते समय हम हमारे ही हिसाब से पकाते है , विचार ही नहीं होता वें कैसा पायेंगें | छोटे से बालक रूपी भगवान को व्यस्क व्यक्ति सा भोग लगा कर
हम चाहते ही नहीं वें पा लें |
वें पायेंगें यें विचार ही पकाने की क्रिया में समर्पण झोंक देगा |
56 भोग लगाने पर देखा है कि पूरा वापिस अपने सम्बन्धितों में बांटने की
तैयारी कर लेते है | वाह वाही हेतु |
अपरिचित कोई भिक्षुक हो तो होता नहीं
हमारे पास | या होता भी है को उपकार का भाव आ जाता है | भाव तो होना है कि प्रभु आप ने कृपा की | वें बडे सरल है घृणा मानविय वृति है , उनकी नहीं | वें ऐसा ही रुप ले कर आते है कि अस्वीकृत कर दिया जाये |
56 भोग भी हो तो सभी कुछ बांट कर केवल अंगुली पर लगा ही पा लिया जाये तो आप जान जायेंगें वें एक बार नहीं कई बार पाने आगये , बार-बार | अलग रुपों में |
भाव में जितना प्रेम सरलता होगी वें
उतने ही समीप प्रतीत होगें अन्तत:
स्थिति यें होगी कि भीतर पुर्ण रुपेण
उनकी उपस्थिति अनुभुत होने लगेगी |
कई बार देखा है भोग के पूर्व विचार
कर लिया जाता है कि खाना क्या है ?
हम अपने सदस्यों के हिसाब से मिठाई खरीद लेते है , वहाँ दिखाते है बस और पा लेते है |
अब कहा जायेगा तो क्या करें , उनके
हेतु जितना है वितरित कर दें , तब आप अनुभव करेंगें उनके द्वारा पाया गया है | युं तो आजकल बडे मंदिरों मेवे आदि के भोग लगते है
पर विशेष वर्ग हेतु | अगर भगवान के लिये ही यें सब था को वर्गिकरण
क्युं |
हरिदास जी नित्य ठाकुर जी से प्राप्त
१२ स्वर्ण मुहरें सेवा में नित्य खर्च कर देतें | वें एक मुहर भी खर्च कर सकते थे नित्य पर वें पक्के संत थे |
नित्य 56 भोग लगता और वें वृन्दावन
के संत-गौ- पशु-पक्षी बन्दरों में और यहाँ तक यमुना में मछलियों को पुर्ण करा कर 10 तौला चने के छिलके ही
पाते | यानी 100 ग्राम !
प्रभु ने स्वयं कई बार कहा आप यें
क्या करते है स्वयं केवल चने का छिलका तो वें कहते प्रभु आप भगवान है यें 56 भोग आपको ही शोभा देता है | मेरे को नहीं | आगे कई निवेदन बाद भी वें ना माने तो भगवान् हाथ जोड विनति कियें |
तब वें कुछ पाने लगे |
भोग लगा कर जो पाया वो प्रसाद हुआ | जो उन्हें समर्पित किया ,कुछ
भी | उन को छुआ , उनका पाया ,
अर्पण किया सभी कुछ गुणातीत हो
जाता है | सत् रज तम रहित | केवल उनका रह जाता है | उनका हो जाता है | वें पारस है जहाँ छुते है पारस हो जाता है |
हरि को छुआ हरि हुआ |
जो भी वें अपनाते है उसे पूर्ण कर देते है अल्प होता ही नहीं |
कृपा रह जाता है |कृतज्ञता है उनकी कि वें कुछ अर्पण करने का अवसर हमारे हाथों को दें |वरन् पूर्व में ही सभी कुछ उनका -उनसे ही है |
ऐसा अनुपम है उनका प्रसाद | पल भर की देरी ना हो उसे लेने में | हरि ने कृपा कर प्रसाद दिया | अपना समझा | जिसे वें छुये उसे पाने का अवसर मिला | मिलते ही प्रसाद का कुछ अंश
ग्रहण कर लें | हरि प्रसाद सा कछु दुर्लभ नाहीं | उनकी कृपा को उसी पल अपना लें , स्थिति-परिस्थिति का
त्याग कर दें | ...
मीरा जी ने जो विष का प्याला पिया |
इसलिये कि उन्हें चरणामृत कह कर
दिया गया | जिन्होंनें दिया उनके चरित्र -
स्वभाव से मीरा जी परिचित थी |
पर हरि चरणामृत कहे जाने पर वें
विष का तिरस्कार न कर सकी | विचार
करिये देखने से नहीं तो स्वाद से जिह्वा
पर रखने मात्र से विष का पता चल जाता | उन्हें पता था | पर हरि का नाम
जुडने मात्र से वें ना छोड सकी और भाव चरणामृत सा रहा | वें गति से पी गई | विष ही सही हरि ने भेजा तो सही
कहीं हरि मिलन हेतु जीवनलीला की विश्राम चाहते हो | वें ना रुकी | इसे कहते है शरणागति | सब उसके मन की | परिणाम से सरोकार ही नहीं | आजकल बहुत लोग है जो अपनी मति को हरि से जोड देते है | विचार ना
हो ... बस हर क्रिया में प्रेमलीला का आभास ही हो तब बात होती है प्रेम की |
चरणामृत ने अमृत सा ही प्रभाव दिया , वहाँ उपस्थित दासियों आदि ने मीरा जी
के तेज को बढते देखा ... उनसे देखे भी ना बना | ऐसा ज़हर का प्रभाव | केवल कहा ही गया था चरणामृत है और चरणामृत हो गया |... प्रसाद को ग्रहण ऐसे करते है | निष्ठा-प्रेम-समर्पण से !!
पिया का मिला ... कुछ उनका छुआ!!
सत्यजीत"तृषित"
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