गुरु , तृषित , 2016
गुरू
एक वर्ष पूर्व का यह भाव
*गुरु*
- सत्यजीत तृषित
जय जय श्यामाश्याम !! गुरुपूर्णिमा की हार्दिक बधाई ।
गुरु तत्व पर कभी विस्तार से बात करनी थी , उत्सव के दिन इस तरह की तात्विक बातों से अच्छा गुरुचरणाश्रय में रहा जावें ।
प्रत्येक मानव को भगवान के मंगलमय विधान से विवेक प्राप्त है परन्तु वह उस विवेक का समुचित सद् उपयोग नही कर पाता , कारण मंगलमय विधान का अनादर ।
प्रत्येक पद में दो तत्व होते है , दीर्घ (गुरु) और लघु । मन-बुद्धि-अहंकार से महतत्व विकसित होता है , परन्तु महतत्व से तो जीव को स्वयं और स्वयं के देह होने और अपने ईश्वरीय सम्बन्ध का महत्व प्राप्त हो इस हेतु अहंकार मिला है , अहंकार एक आवरण है जो सुरक्षा के लिये प्राप्त है जिसका सदुपयोग कर उसे भीतर आत्मसात ना किया जावें , यहीं व्यक्ति का गुरुत्व है । जीव सरलता से अहम का त्याग नही कर सकता उसका गुरुत्व मिला है जड़ संसार के गुरुत्वाकर्षण मुक्ति हेतु और वह स्वयं के भीतर के गुरुत्व को दुरपयोग से जगतमय जगत में बंधा ही चाहता है ।
गुरुत्वाकर्षण सभी जानते होंगे , जड़ता की व्यक्ति खींचा जाता है कारण कामनाएं , भोग की लालसा , सत्य का बोध न होना आदि इससे जिस मनुष्य को अध्यात्म (संसार से आत्मा फिर आत्मा से परमात्मा की यात्रा ) अर्थात् और भगवत पथ की ओर उन्मुख नहीं हो पाता ।
जब तक अहम् नहीं छुटेगा लघुता और दीनता न होगी । ईश्वर विराटता और स्वयं की लघुता जब ही ज्ञात होगी जब भीतर की गुरुता का त्याग होगा अथवा उसका पूर्व कथित सदुपयोग हो जो कि वास्तविक ज्ञान के अभाव में असम्भव है । अतः मनुष्य हम क्यों है ? इस प्रश्न के उदय से यात्रा शुरू होती है , फिर अन्तः मन के अहंकार को स्वयं से बाहर सत्पुरुष और सन्त चरण में अर्पण कर अपना अहंकार त्याग देना ही वास्तविक शिष्यत्व है । वही अहंकार जब अहम को सत्य कह रहा था तब तक वह पतन का हेतु था , अब वही अहंकार तत्व सन्त अर्पण होने से विशुद्ध गुरू हो गया ।
अर्थात पहले व्यक्ति अध्यात्म को भौतिक जीवन से परिचित नही था , फिर आध्यात्मिक लालसा से वह जो मोनिटरिंग उसमें स्वयं में ही थी वह सही हाथों में दे दी क्योंकि जब तक खुद के हाथ में रही पतन ही हुआ । शिष्य अहम् गलित लघु भावना है , आज गुरु दीक्षा लोकाचार रूप हो जाती है , अपने गुरुत्व को त्यागा नहीं जा पाता । वास्तविक शिष्य आध्यात्मिक पथ पर केवल डेस्कटॉप है जिसके आध्यात्मिक जीवन में आने वाले दृश्य गुरू रूपी CPU से चल रहे है । अपनी कमांड जब तक अपने पास रहे और उसका सदुपयोग भी हो ऐसा सम्भव नहीं । क्योंकि जीव तत्व को युगों से एक सत्ता चाहिये ही , और सत-असत ही जब तक ज्ञात तब तक विवेक भी कहाँ होगा ? अतः गुरू अनिवार्य है ... !
गुरू तत्व नित्य है , अर्थात सदा है और था और रहेगा ... कभी है या कभी नहीं ऐसा नही । नित्य तत्व है , भगवान का गुण रूप ही गुरू तत्व है , सच्चिदानन्द तत्व से भिन्न कुछ नहीं , अतः गुरु भगवान का गुणावतार है । ईश्वर का बोध प्रकट शब्दों में जीव तत्व को नहीं हो सकता अतः गुरू रूप वही ईश्वर के स्वरूप-रस-रंग आदि को प्रकट करते है । जीव का देहात्म भंग करने हेतु गुण रूप से भगवान को ही सन्त भाव से वह गुरू तत्व को प्रकट करते है । अर्थात् तत्वतः गुरू नित्य है उसका व्यक्ति विशेष हेतु भाव अनुकूल रूप भगवत् प्राप्त सन्त में अनुभव होता है ।
आपने देखा ही होगा कि जो कभी गुरू नही हो सकते वह भी गुरू स्वीकार किये गए और उनके प्रति अपार श्रद्धा भी रही , अर्थात् मेरे लिये जो गुरू हो जरूरी नहीं सभी को वैसा ही भाव हो , अपितु किसी किसी का उनसे संसारिक सम्बन्धों हेतु राग-द्वेष भाव भी हो सकता है , जहाँ अपार श्रद्धा से हमें वह परम् स्वरूप ही अनुभूत होते वही किसी को कोई अनुभूति ना होना या मतभेद आदि भी होना इस बात को सिद्ध करता है गुरू तत्व नित्य है , जहाँ हमारे लिये दृश्य हुआ अन्य को नहीं हुआ जिसका कारण भगवत् उत्कंठा का अभाव और भगवत्-सन्त कृपा की अनुभूति का अभाव है । वरन् गुरू तत्व नित्य है , और नित्य होने पर भी शिष्यत्व ग्रहण करने से ही उद्धार है । आज शिष्य भी हुआ जाता है दैन्यता को प्रस्फुटित करने हेतु नहीं अपितु भविष्य में गुरू ही होने हेतु । शिष्य धर्म में मिली गुरूसेवा प्रकट भगवत् सेवा है जिसमें निर्मल वृति और निष्कामता आवश्यक है । सद् गुरु के लिये तो गुरुत्व ग्रहण करना बड़ा ही कठिन होता है, कारण ईश्वर और जीव दोनों के प्रति वहाँ दायित्व हो जाता है सम्बन्ध कराने का , अगर जीव का भगवत् सम्बन्ध न हो सकें तो सद् गुरू प्राप्ति का अर्थ ही क्या रह जाता है । आज वर्तमान में नव परम्पराओं में गुरु सम्बन्ध में ईश्वर गौण हो जाते है और गुरु सम्बन्ध ही हितकर प्रतीत होती है , यह पद्धति भी लाभमय है क्योंकि सर्वमेव विद्यमान भगवत् सत्ता का एक में भी दर्शन और भावना का गहरा होना सुंदर बात है । वरन् सर्व मेव गुरु ही और भगवान ही जहाँ अनुभूत हो वह भी पागल नही अपितु भगवत् कृपा से ही कोई दिव्य अवस्था है । साधना पथ के वास्तविक पथिकों का अपने गुरू से कही विच्छेद नहीं होता , गुरू तत्व का अर्थ है ईश्वर की शक्ति ने ही ठान लिया आपका आध्यात्मिक पथ अब स्थिति अनुरूप किसी भी रूप में वह होगा जैसे आंतरिक विवेक की स्थिति । या शास्त्र निर्देश , सन्त वाणी , प्रकृति आदि । अपने सामर्थ्य का सदुपयोग होता ही गुरू शरणागति पर है , गुरू आपके सामर्थ्य को धर्म में पिरो कर भगवत् कन्ठ का हार ही बना देते है । शेष कभी विस्तार से , गुरू ईश्वर है और ईश्वर ही गुरू है । जो जीव के ममत्व और देहत्व को मिटा कर उसके जीवन के कृष्ण पक्ष को शुक्ल पक्ष में बदल देते है , कृष्ण पक्ष जीव का आत्म साक्षात्कार ना होने पर अर्थात मै देह हूँ की भावना है जिसकी 15 कलाओं का फल अमावस्या है यह ही बन्धन है । जीव कृष्ण पक्ष में ही घूमता है क्योंकि सत् की आवश्यक व्याकुलता अनुभूत नही हुई । गुरू जीव को देहत्व को भंग कर शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा अर्थात पूर्णत्व की प्राप्ति या ईश्वर से मिलन तक लें जाते है और इसमें 16 कला होती है । देहत्व का भंग होने पर आत्म रूप से की साधना ही सोहलवीं कला है जिसकी जागृति जीव और भगवान दोनों की मिलन ईच्छा से होती है । शेष फिर कभी ... *सत्यजीत* *तृषित* ।। जय जय श्यामाश्याम ।
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