क्यों बदलते हो , तृषित
क्यों बदलते हो ...
नेत्र खोलोगें सब बदलता दिखेगा । हर एक एक कतरा जिसे खुली आँखों से देखते हो । पर तुम खोजते हो वह जो ना बदलता हो । तुम जहाँ जाते हो बदल जाते हो , भाषा -लहजा सब बदल जाता है । तुम एक से नहीँ हो पा रहे , मंदिर में कुछ और हो ... घर में कुछ , बाहर कुछ । सदा एक से रहो भीतर से । दशाओं के सँग बदलोगें तो कभी अनुराग तुम्हें छुएगा ही नहीँ । और प्रेम तो कोई अवस्था स्वीकार करता ही नहीँ । प्रेम तो नशां है जिसे पिलाओ बहक जाएं , खुद को खो जाए ।
पर तुम अपने को क्योंकि कभी हालात तुम्हें बाहर सताते है कभी बाहर इतनी सुंदर आबोहवा होती है कि तुम भीतर उतर ही नहीँ पाते ।
तुम रात के खुले आकाश हया भी नहीँ सह सकते तो दिन की तपन में रात की कशिश भी नहीँ सुनते ।
सामानों जैसे हो गए हम सामान खरीदते बेचते । अर्थात तद्रूप । जैसा चिन्तन वैसे हो तुम और मूल में चिन्तन संसार ही है ।
मैं अपने सँग के पथिकों को यही कहता हूँ उसका सँग करो जिसका हृदय सच्चा है , मैं राम राम कहुँ पर उस राम में मेरा लक्ष्य क्या है ? मेरा लक्ष्य शुद्ध न हुआ तो कैसे वो राम तुम्हें बाहरी सर्वता से हटा कर आंतरिक सर्वता देगा ।
तुम कहते हो सब बदल गया , धर्म धर्म नही रहा । तब तो तुम निश्चित अधर्म के अनुसरण में हो । क्यों जाते हो वहाँ जहाँ संसार ही मिलना भले राम-राम कर के । हाँ तुम नहीँ मानोगें शब्दार्थ से राम ही राम से मिलता पर लक्ष्यार्थ क्या है ? अंतःकरण में संसार ही तुम्हारा राम है । जब राम ही संसार हो तब तुम अणु मात्र व्याकुल होंगे सच किसी हनुमान से भगवत नाम रसिक के सँग हेतु । राम रस पान सम्पूर्ण व्याकुलता ही हनुमान है । राम भक्ति के सागर वह । पर संसार उनसे भी संसार माँगता है , संसारी डर के कारण हनुमान चाहिये । राम भजन रसार्थ नहीँ ।
अपना कल्याण उसे सौंपो जिसे सच में सारा जगत उसके कदमों की धूल लगता हो , जो हर हाल में भीतर उसके चरणों की रज मात्र सा ब्रह्मांड में ना पाता हो । जो बाह्य ऐश्वर्य में ही अटक गया वह तुम्हें आगे कैसे लेकर जाएगा । वैकुण्ठ में खड़ा हो जो पुकारे ... किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ ! उसकी पिपासा सच्ची । शेष तो सब जो मिला उसे ही प्राप्य मान रहे है । अगर ईश्वर भक्ति में होने पर भी जगत का विस्तार कर रहे है तो वहाँ जगत ही माँगा गया है । जगत के विस्तार में , वैभव में भी अगर श्री प्रभु पद नख प्रभा ही सच्चा सुख हो तब ही अनुराग प्रकट होगा । वरन नहीँ , अर्थात तुम कुछ छोड़ने संकल्प ना करो , अपितु तुम जहाँ हो , जैसे हो , हर हाल को छोड़ चुके हो , डूबे हो दिल से प्यारीप्यारे की चरण रज में ... । अपनी देह तक से तुम्हें वैराग हो गया है , जिसे देह की सुरक्षा की भी चिंता हो और अनुराग भी धारण करना हो वह पहले क्या करेगा ... तुम जीवित देह में कैद कोई पंछी मात्र नहीँ । तुम स्वयं जीवन हो ... अतः स्वतः मुक्त हो देह से ... परन्तु तुम अपने को जीवन नहीँ जीवित्त मानते हो । ... और प्रेम तो नित्य जीवन है , कोई जीवित अवस्था मात्र नही ।
धर्म नही बदला , अब भी चुभते नहीँ है फूल । अब भी जल में शीतलता है । अब भी प्राण वायु सुलभ है । अब भी अग्नि दाहकता रखती है । धर्म कहाँ बदला । हाँ अपने बदलने को तुम ही धर्म बदलना कहते हो । और कहते रहोगें । तुम कभी यह मानोगें ही नही कि तुम बदल गये । क्या शीशे में तुम्हें अपना बचपन दीखता है नहीँ ना , तुम सच बदल गए हो ।
और बदलते जब तक रहोगें मोहब्बत ना होगी । प्रेम की अनुभूति ना होगी । तुम्हें चाँदनी से इतना प्रेम हो कि धुप कब आई और गई पता ही ना चले । यह सूरज थोड़ा सा रूठा हुआ चाँद लगे तुम्हें । यह धुप उसकी गहरी चाँदनी , क्योंकि वहाँ दिल तक गया तो अटक गया । हृदय शीतल हो गया तो गर्म कैसे होगा ?
हृदय में पीलो चाँदनी को फिर वहीँ सदा । फिर धुप सताए तो वह बाहर नहीँ अंदर की ही जलन है । प्रेम में बाहर से कुछ मिलता ही नहीँ हर हाल मिलता है अपने ही अंदर से ।
जिसका सँग (चिन्तन) उसका स्वरूप तुम में उतर जाता है ।
ठहर कर देखो एक दिन । एक दिन छुट्टी ले लो और एक बात पकड़ लो , सारा दिन उसे पकड़े रहो फिर देखो वो एक दिन कितना कीमती होगा ... बात क्या पकड़ोगे , ना ना बात कोई वो मत पकड़ो जिससे तुम तुम हो यह सिद्ध हो । बात पकड़ो कि तुम हो ही नहीँ वही है । बात पकड़ो .... मेरे प्रियतम को अनन्त प्यार है मुझपर , प्रति पल अनन्त । बस इस भाव जगत में डुबो यह तुम्हें तद्रूप कर देगा । जिसका यह भाव उसके अणु मात्र भी हो सकें तब कहीँ सत्य में उसकी रज अणु तुम्हें छुएगी । तब भी तुम्हें लगा तुम हो वहाँ तो तुम कहते क्यों हो फिर बार-बार ... किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ । उनके भाव अणु को जीने को तैयार नहीँ , क्या रज अणु छुने पर तुम रहोगें और क्या चरण रज अणु प्राकृत जगत में कोई वस्तु है जो तुम्हें बाहर मिलेगी । वह महाभाव सुधा की लहराती बूंद भाव में ही गिरेगी । ठहर कर सँग करो भीतर , पुकारो ... मेरे प्रियतम तुम्हें कितना अनन्त प्रेम है मुझसे मै तो तुम्हारे अनन्त प्रेम में नित्य डूबी हूँ ।
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