पिपासा , तृषित
पिपासा
एक बात कहुँ , तब अगर पागल कर देते तो कम से कम यह कसक तो रह जाती कि वजह क्या है ??
पिपासा जितनी पुरानी होती उतना उसका नशां महका देता ।
एक दौर कैसा था भीतर आग सुलगती दर-दर तुम्हें निहारने की , नहीँ ... नहीँ जो तुम्हे निहारते उनकी आँखें चूम लेने की ।। ना इतना भी ना । उनकी हाज़िरी में लगे सेवकों में छिपे हुए तुम दिख जाते फिर निग़ाह दासानुदास हो चली होती । ...केवल तुम्हें निहारने को यह सफ़र शुरू हुआ न ... ... । सोचा भी न था , निहारने की यह तलब तुम्हारे मेरे बीच के संसार को हटाने के लिये मुझे संसार में चलकर आना ही होगा । बहुत कठिन यह दरिया , हाँ बहुत सरल अगर सामने तुम आँखों में सदा... सदा... सदा... !
पर जब से तुम मिले हो कुछ भी कभी होने लगता है । कभी अपनी हँसी हृदय छिल जाती ... कभी अपने आँसु हँसा जाते ।
अगर रोज अब भी दूर से चुपचाप निहार लौट जाती यह दासी , जिसे यह तक न पता होता कि वो दासी है या दास । तब एक प्यास तो होती क्योंकि तब प्यास का नाम न होता । अन्जानी प्यास परिचय के अभाव में दर्द बनी रहती , बस दिन रात कुछ खलता रहता । ... था वह भी तो दौर जब अच्छा कुछ कभी लगा ही नहीँ । शायद जैसे जिसे समझ आता वह चीज़ (अंतःकरण) ही खोया हुआ था
वो हो सामने मिलते हो कहते न बने आहा । सच इज़हार पहले का एक अलग ही आलम जिसने चैन छिना हुआ । कभी कही कुछ भाने लगता , अच्छा कुछ लगने लगता किसी न किसी तरह तुम यादों में जता देते मेरी पिपासा ।
कितनी फ़िक्र थी तुम्हें दिवा रात्रि मेरी पिपासा की । ... मैं यह नहीँ कह रहा कि दिन रात प्रियतम के लिये रोया हूँ , बल्कि यह कह रहा हूँ कि दिन रात अगर दिल रोना चाहा भी तो दिल को ऐसा कैद उन्होंने किया कि भीगा रहता वो , बड़ा अज़ीब था सब नींद और आँसु , आहा । तुम्हारे भी मन की मेरे भी मन की ।
फिर तुमने मेरी निग़ाह दुरुस्त करने की साजिशें की । तुम्हें वैसे निहारूँ जिसमें बस तुम और तुम्हारी जो तुमसे कही अधिक अब मेरी है , चलो रूठ जाओगे ...हमारी प्यारी जु । उनके प्रेम सँग उनके इस प्रियवर को हृदय में छिपा कर सदा पूजती रहूँ ।
और तुम्हारे इस मिलन रस में अतृप्ति बनी रहती न तुम दिखते न प्यारीजु । युगल हो गए तुम , देखने मात्र को भी दो नही तो कहने में दो क्यों ? मेरे श्रीश्यामाश्याम ।
पर शायद मेरे हृदय में छटपटाहट की वजह थी , वो हृदय युगल हृदय की मूल सरसता में डूब वहाँ से पुकारता और तुम दोनों मुझे बड़े बांवरे समझ आये । तुम दोनों डूब जाओ , खो जाओ । मैं निहार भी न सकूँ इतने दोनों परस्पर मेरे सुख के लिये इन निकुंज की लताओं में छिप छिप कर रमण करते रहो । पर कभी मेरे हृदय कुञ्ज का त्याग कर न सको और मेरे बाह्य समस्त क्रियाकलाप समेट बस खड़ी रखो वहीँ जहां अलसाये मदमय दोनों मेरे सुखार्थ दो होने की कल्पना तक मेरे चित्त से निकाल उसमें रसभाव की एक पिपासा बने सर्वस्व लेकर मेरा ... मेरी पिपासा की एक माला पहन विहरते रहो ।
बात तो यहीँ कहनी थी कि आखिर मेरी पिपासा गई कहाँ ? और तुम , फिर की न शैतानी बिन पूछे सब पहले ही कह दिया मेरे हृदय से कहाँ गई पिपासा । दोनों पहने हो , सदा पहने रहना । यह श्रृंगार दोनों कही कभी उतार नहीँ सकते ... तृषा । पिपासा । एक तृषा-हार में उलझे मेरे युगल ।
निहारने की बात की थी किसी जड़ जीव ने । निहार रहे हो नित्य आलिंगित मेरी हृदयस्थ प्राणराशी श्रीप्रिया को । और मैं जैसे कोई अप्राकृत तृषा लिपटी हो दोनों से । आह । आनन्द । और ... और ... और
तनिक और निकट उर राखिए ,भरिए अंक गाढ़ मोरि प्यारी जु ।। तृषित ।।
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