राधामहाभाव और अचाह । तृषित
राधामहाभाव और अचाह
जब तक भीतर चाहत है , प्रेम प्रकट ही नही होगा । हम चाह भरे हुए अपनी चाह पूरी करने मात्र को प्रेम समझते है और इसे उपकार भी मानते है अपने द्वारा । हम जो भी करते है उसमें कर्त्तत्व का बोध होता ही । मेरे द्वारा यह किया गया , या यह मैं करता/करती हूँ । अपने भोग विलास के लिये मै राजा भी हो जाऊं तो उससे आपको क्या लाभ पर संसार अपने को प्राप्त पद में अपना अहंकार बैठा देखता है । तो एक बड़ी बाधा करने का अभिमान । सब कृपा से हो रहा है यह भावना जब होगी जब करा गया यह भाव ही न हो हमारे भीतर ।किसी वस्तु /व्यक्ति से कुछ मिले तो हम सम्बन्ध रख ही नही सकते है । फल की इच्छा भीतर होती ही , भले हम सभी आज कर्मफल लालसा न हो यह उपदेश करते भी , पर फल ही न हो तो हम पेड़ लगा ही नही सकते है । लाभ प्रथम है आज के काल में । यह बाधक है । फल की आशा कर्म हो सकती है , सेवा नहीँ ।
प्रेमास्पद श्री प्रियतम के प्रसन्नार्थ हमें अन्तः-बाह्य जीवन में होना है । परन्तु उनके सुख के लाख उपदेश सुनकर भी हम अनुकूलता खोजते है । श्री प्रभु को प्रतिकूलता से प्रसन्न्ता यह बात हमारे हर्ष का विषय हो सकती है । प्रभु की प्रसन्न्ता प्राप्ति की लालसा होते ही अपनी विकट स्थिति भी उनका हर्ष खोज लेगी और जीवन तब ही आनन्द का संगी होगा । स्वसुख का अणु मात्र भी होने से आनन्द का अनुभव होता ही नहीँ क्योंकि स्वसुख लोभी कभी हँसेगा , कभी रोयेगा । जब व्यथित होगा तब आनन्द रहा कहाँ सँग ? आनन्द रूपी प्रियतम नित्य सँग है , अतः प्रियतम् सुखार्थ नित्य प्रसन्न , प्रति स्थिति , प्रति काल ।
प्रत्येक परिस्थिति के सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों सम्भव । प्रियतम सुख हृदय में भाव हो तो प्रत्येक स्थिति का क्या सदुपयोग यह पूछने की आवश्यकता नही होगी । कभी प्रियतम का सुख , कभी अपना तब जब जब अपने सुख का भाव हुआ परिस्थिति का दुरूपयोग होगा ही ।
जीवन विधाता की वस्तु है इसका दुरुपयोग करने पर दया तो प्राप्त हो सकती है प्रियता प्रकट कैसे होगी जब प्रियतम की वस्तु के प्रति ही हीनता हो । हम जीवन को किराए का सामान समझ दुरूपयोग करते है , अपना भी मानते तो सदुपयोग चाहते । और प्रियतम का है , उनसे प्राप्त है तब तो सदा अभीष्ट ही सदुपयोग होता जीवन में ।
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग तो हो गया । अब हम विकलांग होते अप्राप्त परिस्थिति के चिन्तन में । बहुत बार अनावश्यक संसार की चिंता करते है जिससे वर्तमान के रस की हानि होती है ।
प्रेमी वही हो सकता है जिसे वर्तमान में खड़ा होना आता हो । जिसे न भुत की गाथा की पड़ी हो , न भविष्य की चिंता । जो वर्तमान में प्रकट रस को पी सकें । वह प्रेमी है । सांसारिक मसलो पर हम सब खरे है , आध्यत्मिक चिन्तन में ही स्वयं को बनावटी दीन सिद्ध कर दीनता से प्राप्त दिव्य मणि का भी अपमान कर जाते है ।
जैसे ऑफिस में कितने ही सरदर्द हो , सबको पता है शादी पार्टी में जाकर नाचना है , मस्ती करनी है । तब हम वहाँ सर पकड़ नही बैठते कि आज मन उदास तो मिठाई क्यों खाऊं । हज़ारों लोगो का मन एक साथ भोग भोगने को राजी हो जाता है । न तब भविष्य का सरदर्द रहता है । मंदिर जाने की बात पर पेरेंट्स फिर भी कह दे कि नही जी होमवर्क बाकी है । पर पार्टी में देर रात हो तब सब हम भूल जाते है क्यों क्योंकि ऊपर से अध्यात्म का बाना देखे देखे पहन लिया । हृदय से जीवन में उतारने को मन राजी ही नही । मन भोगों में लिप्त ।
कर्त्तत्व का अभिमान ना हो , फल की आशा ना हो , प्रियतम का सुख ही जीवन है यह स्वीकार हो , परिस्थिति का सदुपयोग हो और अप्राप्त परिस्थिति की चिंता ना हो तब अचाह अवस्था प्रकट होती है । वहाँ कामना के सभी द्वार बंद है तो स्वतः अचाह है । जब तक यह स्थिति समझ नही आती हम प्रीति का हृदय में स्पर्श नही कर सकते है ।
अणु मात्र वासना है तो प्रीति का अमृत फिर अमृत कैसे रहेगा , निर्मल हृदय अर्थात कामना शुन्य हृदय ।
श्रीराधा महाभाव इसी अचाह की मूल पराकाष्ठा है । चाह और राधा इनका कभी संगम ही नहीँ सम्भव । अचाह हृदय ही राधाभाव की दिव्यता का अणु मात्र वर्षण जीवन में अनुभव कर सकता है । --- तृषित ।।
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