सुरभित पिय हिय ते , तृषित

सुरभित पिय हिय ते

सखी तोहे कछु कहुँ , मैं न जानूँ सखी पर मोरे हिय ते कोई सौरभ उठे । ऐसौ लागे है कि पिय मोरे हिय ते छिप गए सखी । सखी ऐसी सौरभ तो से का कहुँ ।
मेरे अश्रु भी न ढुरके कबहुँ सखी कही वो सुरभ न नेनन ते ढुरक जावे री  ।
मोरे हिय ते वे नित झूलत रहे । अति गाढ़ सुरभ होय वो मोरे प्राण हुये मोहे ही बसे री ।
का कहुँ मोहे में जोई भी सुरस रस तू पावे वही तो मोरे प्राणन को सुख है री ।
जाने है सखी कोई रीत प्रीत वो मो से मिले परन्तु कबहुँ हिय की सुरभता को न छुवे । प्राण बने वहाँ भी मचले वहीँ हिय ते । बाहर भी वहीँ । सखी मैं तो यंत्र मात्र वांकी । मोरे तो वे ही अपनी सौरभ से नचावै ।
हिय में ऐसौ बसे है कबहुँ मैं भी न परस कर सकूँ री । सखी मैं का वाने हिय ते छिपाऊं वे तो मोरे हिय ते ही पुंज होय मोरे प्राण को प्रकट करें है । मेरो मूल तो वे ही री ।
अपने में उतरूँ तो वां में पहुँचूँ । वां में उतरूँ तो हिय सुरभ घनि घनि घनि होय पुरके ।
आह सखी । तू कौन से बतियावे री । देख री वही तोहे सब कहे ।
मूल में मेरो निधि वही हुए मोहे में समाए रहें । और ... हित और भीत सब महकावे री ।
का मै वाँको रस बन सकूँ न री वे मेरो प्राण है जो सुरभित रहे भीतर बाह्य निरत । निरत । सदा । दोउन और ते बहे है ।
कबहुँ प्राण मोहे माँहि पुलक पुलक अति घन होई जावें । सखी सब जाने वो बाह्य ही रस पिवै री , मेऱो रोम रोम वांको ही सुख है , वाँको ही धरा , वांको ही कुँज । प्रियतम जोई रीत प्रीत मोहे बाहर पुलकावे । सोई रीत प्रीत भीतर मोहे प्राण होय सुख बने है री । सखी मैं तो कागज की भीत सी , कबहुँ पिघल भी न पिघलूं । तू ही बता का मोरी प्रीत साँची । जो साँची होती तो काहे प्राण को प्राण मान या पिंजर में राख लेती री । पर सखी कबहुँ यह पंछी मोहे ते छूटत ही न बने । न मैं कबहुँ पिघल सकूँ ऐसी जड़ हुई सी । और कबहुँ वो मोते न बिसरत बने । जोई स्वप्न भी वांको वियोग होय ते वें कही रस वास को भटके न सो पुनः पुनः मेरो हिय वाँके पीछे पीछे फिरे । अपने प्राण को कौन न सम्भाले री । मै तो अति लोभी अपने निज प्राणन की । बस वही मोरे में सुरभित है , जे अधरन की स्फुरण , जे कुमुदित मोरे अंग अंग सब वाँको ही सुख हेत वांकी ही प्राणोषधि से प्रगट होवे । तनिक मेरो कछु रस न है री । तू ही बता रस फल को बीज न गिरे तो कबहुँ धरा रसफल उपजावै । जे बिज होय मोय हिय ते बस गये री । सो सखी ते सब मोहे का का पुकारो । साँची कहुँ सब रूप वांको ही नेह । मैं अपनी प्रीत तो कबहुँ विचार न कर सकी । ऐसी मैं भीतर बाहर भरी हूँ वांकी सुरभ मैं ।जब कबहुँ मोरे श्वसन बाह्य प्राण वायु खोजे तब मोरे हिय ते भूकम्प ही होवे री । प्राण ही प्राण वायु भीतर ही मेरो प्राण। जितने वे मोहे में डूबे है उतने ही बाह्य पिपासित मेरे रसिक नागर सखी । मेरे रसिक पिय । मेरे जीवन निधि । मेरे हिय ते हिय । मोरे प्राणन ते प्राण । मोरे सुरभित हिय वासित कुमल नवनीत अरविन्द सरस् रस मयित नित नव स्फुरित पकंज । श्रीप्रियतम् जु । मोरे पाषाण हिय नित रस तृषित पिय । तृषित

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