वेणु माधुरी पूर्व विरह , तृषित
मनहर वेणु रस माधुरी सों कबहुँ प्यारी रिझाऊँ
जिन रस को कहत पिय सो बनी मुरली की वहीँ प्रीत सुनाऊँ
हिय बसत सरस श्यामा सजी जिन रीत अधरन पिय ऐसौ दरस गाउँ
दासी मांगें कृपा अलिन की कबहुँ युगल नित युगल ही रिझाऊँ
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अबके न दीजो और लोभ पिय
रसगान को लोभ देत काहे नचावै हो
तनिक मोरे निज मन की बस करि लो
जानत निज छुटि वस्तु अबके बेगि हिय बसाई लो
सतावै दीन दासी जग नचावन को काहे नव ललित माधुरी सों
अबके तोड़ देह पिंजरा निज सेवा ही मानिल्यों
--- तृषित
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कौन जगत पिय छोडि गये
असुवन कहत सब इहाँ सुन्दर सुन्दर
लागत अबके भय रोवन सों बहि न जावें श्यामसुन्दर
काहे सुन्दर मेरो दरद तोहे लागे री
का मेरी पीर तोहे पिय रूप दरसावे री
कौन कौन रीत निकलत हो हिय सों
रोवन न देत हो बहत चलत हो अँखियन सों
मेरे उर ज्यों न लागत मन तेरो पिय खण्डहर तब काहे बनाये हो
--- तृषित
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मैं तो कहुँ अलिन तोहे
न आना मनहर गलियन माँहि
देत सब विधि योँ लालच अलि री ,
तू निमिष न निरखियो नैंन माँहि
प्रीत रीत बड़ी विकट दाह सी ,
झुलसन भी मिठो लागे काहे री
और मिलुंगो तोहे नव रूप सों
काहे कहत पुनि पुनि लाज नाहीं वाने आई री
साँची ज्यों निज माने , अपनों जाने ,
कौन अपनी वस्तु परदेस छोड़े धावे रि
मानो जो निज राशि-धूलि ही जान्यो,
सँग ले चलो पिय, डोली अबके बिखराई री
--- तृषित
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वेणु भरी प्रीत गा लूँ
तब ले ही चलो अबके ...
काहे छोड़िये हो इहाँ बहलावे नित-नित
अब के न सुनूँ कछु , मानो न मानो मैं तो चली प्राण तज के
ना जाऊँ कोई निकुंज अब तोरे
ना लोक परलोक के फेरे ...
तब जाऊँ कहां पिय मोरे
पिय सब ओर तोरे ही बसेरे
भलि न करि है तुम नेह लगाए के
डोली बैठाए कोई कबहुँ दुल्ह कोऊ भटके
--- तृषित
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इहाँ हूँ तब काहे को प्रेम री
बड़ी कुटिल चाल चली नेह की
बिसरत फिरे कहां-कहाँ पिय
मोहे और न अब कछु भावे री
जीवन ले जावे तो पीर न होती
मरन भी ले भागे हाय हम प्रीत अभागे
और भी कहूँगी निज प्राण बेरी तोहे
फिरे इहाँ-तहाँ , वाँके अंग क्यों न लिपटी
--- तृषित
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