भोग से प्रेम इंद्रिय की पिपासा का विकास , तृषित
अभी हृदय में एक प्रश्न का उत्तर उदय हुआ
भोग और प्रेम में कैसे समझ आवें कि हमने वस्तु का भोग किया अथवा प्रेम रस ही रहा ...
उत्तर ... भोगी हुई हर वस्तु विष्टा हो जाती है । अर्थात वस्तु का अंत है यह जान ही भोग सम्भव ।
देखने की वस्तु को सुनता रहूँ तो वह भोग्य नही होगी ।
जिह्वा की वस्तु को दूसरी इंद्रिय से जियूँ तो वह प्रेम होगा , अर्थात नेत्रों से भगवत प्रसाद को दर्शनों से ही वास्तविकता में गृहण करूँ । उस प्रसाद की अप्राकृत सुगन्ध लूँ ।
भोज्य न मानूँ पूज्य मानूँ । जिह्वा पर रखूं पर हृदय कुञ्ज के प्रभु के भोग हेतु ।
पुष्प से आती सुगन्ध उसका अंत कर देती , पुष्प को नासिका से भोगने की अपेक्षा नेत्रों से ही पान किया जावें तो वह प्रेम होगा पुष्प सँग । जो उसका अंत नहीँ चाहता । पुष्प के सुख कर रज होने पर भी नेत्र उस रज के अणु अणु में वहीँ स्वरूप खोजेगी ।
सन्त चिन्तन-विचारों का मन मनन कर भोग करता है ।
हम विचार को वाणी रस स्वीकार कर सेवा हेतु उनमें भगवत भाव रखें तो वह रस प्रदाता होगा ।
जैसे गुरु ग्रन्थ साहिब का विश्लेषण मात्र कर खण्डन मण्डन का विषय मान लिया जाता तो वह पूज्य न होती। पूज्य मानने से अपनी बुद्धि की आवश्यकता ही नहीँ रही । आज मन मनन कर भोग की अपेक्षा सहज शरणागत वहाँ हो जाता है , सन्त वाणी ही भगवत उद्बोधन है यह बहुत गहन सिद्धान्त ग्रन्थ साहिब ने देकर उपकार किया है । सन्त वाणी को धारण कर लो धर्म है वह तुम्हारे पथ का ।
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