मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूँ , तृषित
मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूँ
सिकन्दर हूँ मगर हारा हुआ हूँ
--- प्रेम । कहते न आप सभी इसे कह पाना आसाँ नहीं । सच में नहीं । कह पाना क्या इसकी महक तक आ जाये न तो फिर कुछ रहता नहीं बाक़ी । दिन-रात सुबह-शाम सब गायब हो जाते है । प्रेम बड़ा विचित्र है । एक दौर होता है याददाश्त (स्मृति) के लौटने का । अर्थात युगों की विस्मृति से उनके प्रेम की स्मृति में प्रवेश का । जब हम उनकी ऒर चलने लगते है । चलते-चलते बड़ी मीठी वेदनाएं आती है । आँखे बहती है बहुत बार सारी-सारी रात ... आप तो प्रेमी है ...पर बात हमारे प्रेम की मैंने की ही नहीं कभी । उनका मात्र प्रेम क्योंकि प्रेम तो उनका प्रेम ही है । जिसे भी यह पता हो कि मेरे प्रियतम (महबूब) से विशेष मुझमें प्रेम है वह प्रेम को छूने से चूक रहे है ...सो केवल उनका प्रेम जीवन वत जब मिल रहा हो , तब होता है प्रवेश ...पी के हिय आँगन में । प्रेमास्पद के हृदय सुख जीवन में होना ही प्रेम में होना है , इसमें स्वयं को पूर्ण खोना होता ही है ...स्वयं की स्वप्न में भी चिंता से अपने प्रेमास्पद (प्रियतम) के सुख का सँग छूट सकता है सो प्रेमी अपने लिए पृथकता को छूना ही नहीं चाहता ।
प्रेम वह है जो खींच लें और श्रीप्रियतम का ही प्रेम खेंच लेता है पृथक् सब कुछ । सच में जो खेंच लें वही कृष्ण और जो इस पुकार में उनके सुख उनकी ओर सिमटने लगें , वह उनकी श्रीप्रिया उन्हें सजाने को दौड़ती ... जो प्रकट होती ही प्रियतम के प्रति मनमोहक स्वरूप और लीला रस से हृदय भीगने पर ।
पथिक सब और से राग हटा कर उनका हो जाता है तब उस पथिक सँग उनकी अनुभूतियां निकटता से खेलने लगती है । अब यहाँ वह स्वयं को रोक ले तो देखेगा एक बेताबी का बादशाहं ... मोहब्बत के समुंदर में डूबा एक प्यासा परिंदा ... । श्यामसुन्दर । तृषित प्रियतम ।
सच तो यह है कि इनमें तब एक पल क्या एक रोम भर की दूरी का वियोग भी असहनिय हो जाता है , श्रीप्रेम के रसचन्द्र स्वरूप प्रियतम नित्य प्रेम के चकोर है सो उनकी हिय तृषाओं को केवल दर्शक भर निहारने की अपेक्षा , जो उन लालसाओं को मधुर अनुरागों से भव्य प्रेम आलापों सँग सजा रही हो वह भावनाओं की उद्गमस्थली महाभाव होकर प्रकट निकुँज लीला सुख दे रही होती है । शेष दर्शक श्रीप्रियतम की प्रेमतृषा से जड़ हो सकते है क्योंकि श्रीप्रियतम का प्रेम दर्शन जब चेतन होता है तब वह प्रेमचकोरी भावराज्य में सेविकाओं को जोह रही होती है । इनकी ही ओर की बेचैनी प्रेम-पथिक के हृदय से फँट कर झरती रहती है ।
इन्हें जो रस उस प्रेमी में मिल जाता है , उसे ये कभी छोड़ नहीं सकते ।और वह बेचारा इनके चक्कर में घनचक्कर सा ।
चुपचाप सा सब से छिपकर चाहता रहता है और सोचकर भी भयभीत होता रहता है कि यह रोग कही छोड़ न जाये ...कभी यह रोग मिट ना जाएँ अगर कुछ हुआ है मेरे भीतर तो वह और बढता जावें इनकी ओर ... और और इनकी ओर ।
इन अहसासों में बाहर शुन्य सा ,जड़ सा, बीमार सा मृतप्रायः सम वो लगता है अपने जगत के सम्बन्धियों को । बाहर के सम्बन्धी ...जो छूट सके छूट जाते है (स्वार्थ सिद्ध न होने से)। जो न छूट सके वो तो अब जीवन का मकसद ही इस स्थिति से अपने परिजन की मुक्ति का उपाय खोजते है और वें भौतिकी संगी इस रोग को दबाने के सभी उपाय करते और हर उपाय सँग यह रोग बढ़ता ही जाता है । ऐसे सम्बन्धी स्वीकार नहीं कर पाते अपने साथी की यह बाँवरी दशा और वह बाँवरी दशा के नशे में चूर प्रेमपथिक किसी ओर ही जगत में नाच रहा होता है , उसका हृदय किसे कहे कि वह पी सँग ( प्रियतम सँग ) होना उत्सवों की झरती वर्षा में भीगते होना है ।
यह अंदर के रस का नशा कभी किसी ने खुद नहीं छोड़ा । इन स्थितियों में कोई घायल न हो और प्रेमी भी हो यह सम्भव ही नहीं ..ना ही प्रेम के मधुरतम पीडा के सघन उफान को पहचान कर ही कोई डूबता है ...अचानक ही वह खो देता है स्वयं को अपने प्राणधन में । सच्चे प्रेमी को फिर बाहर सब चुभने सा लगता है (प्रेमी प्रियतम की अपेक्षा कहीं वह निः स्वार्थ प्रीति सुलभ नहीं होती सो)। हर इंद्रिय , हर क्षण उस मनहर में कोमल सरस पा लेती है । मन तो अब मन रहता ही नहीं , लौटता है प्रेम का नशा बन कर ...मीठी खुशबुओं की फिज़ा बनकर । और उन्हीं फ़िज़ाओं में महकने खिलने और जीने लगता है वह मन , प्रेम (मोहब्बत) में खोकर ।
बेमन होकर यह संसार... कल्पना भी भारी लगती संसार की बेमन से क्योंकि संसार मात्र मन का श्रृंगार है । कल तक जो सब पसन्द था , वह सब बदल जाता है कुछ पलों में ।
यह सब तो होता ही है ...आप जानते ही है ।
पर प्रेम वो तो हर स्थिति में नव-नव रस , नव लीला रच लेता है ।
धीरे-धीरे जिसने सब छुड़वा दिया वो अपना बना कर फिर ले चलते है जगत में कहते है मेरा घर समझ सब स्वीकार करो जैसे मेरे मन्दिर से प्रेम करते वैसे ही इस जीवन से करो क्योंकि अहंकार छुटते ही प्राणी को अपना तन तक ढोना मंजूर नही होता तब वह सब जो अपना नही रहता यह प्रियतम भाँति-भाँति सिद्ध करते है इनका मान संभालें चलो । यहाँ बहुत से प्रेमियों को समय लग जाता है , पर जिसे वह छु गये उसके पास कोई विकल्प ही नहीं रहता ...सब कुछ उनकी सेवामात्र शेष होता है , और जो श्री प्राणप्रियतम का इन तन-मन-धन -जीवन-प्राण आदि सबसे जो सुख बढ़े तो तब अपनी इन अलबेली हरकतों से हुई उनकी शरारतों को जीकर जो आंतरिक सुख मिलता वह बड़ा गहरा होता है । बस उनके सुख को जीना है , उनको पाकर ठहरना नहीं अभी तो और पाना के उनके सुख की तरंगों को ... !!
अब हर पल वही भीतर ,पर बाहर से सब वही पहले सा ...। भीतर से सब उनका हो गया । हाय यह मधुर रोग , कैसी - कैसी स्थितियाँ ???
एक-एक चीज़ छुड़ा कर , मेरी है कह- कह कर वही फिर खिला दी... (प्रीति सजती है प्रियतम की होकर) यहाँ उनकी कृपा से अनुभूत उनका वह सुख जो उठता है जीवन को नित्य उनकी खुशी बनाने से । पर यह बात कही नहीं जा सकती ।
बहुत सी स्थितियाँ आती जिनका हृदय पूर्णता से त्याग करना चाहता है पर जीवन उन स्थितियों में जकड़े अपने प्रियतम से प्राप्त रस की सुख लीलाओं में बहता रहता है ।
असत प्रपन्च उन्हें रखना ही , नाट्य पात्रों की परस्पर मैत्री चलते नाटक में हो जावे तो भी नाट्क ज़ारी रखना होता है । यह बहुत कठिन है । अब जीवन से वह इन प्रेमहीन अनन्त अंगारों में फेंक-फेंक खेलकर आनन्द में नाचें । पर वही ...वही , वही ही जब ठहरे हो तब कैसे फिर यह संसार । क्योंकि अब जो शेष दिखता वह है नहीं (केवल प्रियतम ही शेष है , जो हो सकें उनके रसअवशेष )। और जब जीवन का यह स्वांग और इसमें सदा से रूचि लेते हम तो अब है ही नहीं , तो अपना ही पूर्व में सजाया यह प्रियतम से दूर का जीवन पीड़ा देने लगता है क्योंकि जीवन तो प्रियतम में है प्रेमी का ।
प्रेम बार बार लौटता है खेलने , अपने को खोने । अपने को बनाने में जितनी चुभन है , उतना ही अनन्त रस अपने को खोने में ।
जब मुझमें से मै बह जाता हूँ तो नैंन हो या कान या मन वो किसी भी दरवाजे से या सभी से आकर भीतर बैठ जाते है और तब जो-जो होता है ... सब रस खेल सा । अपने को जितना खोया जाएं उतने ही वो भीतर डूबने लगते । यह अपने को उनमें खोने की कसक भी कसक बन याद बन जाती । और बाहर जो है नहीं ...वो बनने लगता है (लीलारस)। वो जो भी चाहें पर सारी रात जब वहीं ..वहीं ..वहीं होते तब वैसा एहसास फिर होता ही नहीं कहीं । सो प्रेमी की तन्हाइयों में कुछ रसिले रस भरे होते है (भजन - लीलानुभव )। और उसके हेतु यह सारी दुनिया काँच की गोली सी हो गई । पर ... !! खोने में जो सुख था , सुख है क्योंकि खोने को कुछ अपना है नही पर दर्द रहता है तब जब कुछ अपना ना हो पर अपना कहते हुये खेल खेलना हो क्योंकि अब यह अपनापन उनका होकर कंकर-पत्थर पर झारा नहीं जाता ...क्योंकि मेरे प्रियतम का जो है वह दिव्य है मेरे नयनों में । बड़ा गहरा सा दर्द समेटे , ऐसा दर्द जिससे निकलने को मन कभी होता ही नही पर ... ...
पगले से वें ...प्यार देकर क्या-क्या नहीं खेल लेते ...केवल बाहर रहकर ही खेल लेते , इतना ही नहीं ... ! भीतर उतर-उतर कर खेलने से क्या-क्या सुख उन्हें मिलते हो ...फूलों में छिपे वह भृमर जाने ??? जिसे खोना था ...उस झीनी चद्दर से ढकने लगते हो फिर तुम ... ... कहाँ-कहाँ तक हो अब तुम --- तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । श्रीवृन्दावन । श्रीवृन्दावन । श्रीवृन्दावन ।
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