प्रेम की अभिव्यक्ति कैसे , तृषित

*अपने प्रेम को प्रेमास्पद से भी अभिव्यक्त नही किया जा सकता है , वह केवल अनुभव रहकर सुख सेवामय अभिव्यक्त हो सकता है*
वास्तविक दो प्रेमियों को अपने प्रेमास्पद से कुछ नहीं चाहना होता है अपितु प्रेमी देता भी हृदय से वैसे है जैसे सूर्य को जल का अर्घ्य दिया जा रहा हो , सो प्रेम की सिद्धता केवल भजन सिद्ध होने पर हो सकती है । भजन ही प्रेमास्पद के लिये भाव-अर्घ्य है । प्रेम के अर्घ्य को भी प्रेमी मधुर शीतल सुगन्धित सेवा अपने हिय में यूँ देते है कि प्रेमास्पद को अनुभव हो ज्यों अभी शीतल पेय (शर्बत) में स्नान किया हो ।
प्रेम अगर देने की अपेक्षा लेने लगे तो ब्रह्मांड सर्वदा के लिये विपरीत गति में रहे , प्रेम सभी धर्मों से इसलिये अद्भुत है क्योंकि वह प्रेमास्पद के धर्म की रक्षा भी करता है । एक सैनिक अपने धर्म को प्रतिपादित करने हेतु आशीष पाता है निज प्रेमास्पद जनों से ...विजयी भव । वहीं निज जन कहें कुछ लेने की स्मृति रखें तो सैनिक से निज धर्म की सिद्धि न होगी सो प्रेम सदा-सर्वदा अभिव्यक्त शुन्य भावना है । प्रेमास्पद पर सरस् श्रृंगारों की रचना की झांकी ही प्रेमी के कौतुक हृदय पर एक उज्ज्वलस्मिता है क्योंकि प्रेमी ने कहा नहीं केवल हृदय से रच दिया ... सरस मधुर निकुँज , जिस भावकुञ्ज में परस्पर दो प्रेमी उत्सवित हो वह हृदय की सेवा है जो अनुभव तो हुई है पर अभिव्यक्त प्रेमास्पद पर होती हो , युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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