अनन्य सुख (संक्षिप्त) , तृषित

*अनन्य सुख* (संक्षिप्त)

अनन्यता हृदय की गोप्य सेवा निधि है अपने प्रेम के लिए प्राप्त आचार्य कृपा प्रसादी । वह निभृत सुख सेवा है । सो कुँज निकुँज स्थितियां भी अनन्यता की लालसा करती है परन्तु इस हृदय कीर्तन की राजनीति कर नारे नहीं लग सकते कि मैं अनन्य हूँ । अनन्य में अपने इष्ट के प्रति सघन गहन ऐसी सेवा तो हो कि अन्य लीलाओं के भाव रसिक प्रियतम उनकी अपेक्षा करें और उस सिद्धि हेतु उन्हें स्वयं अनन्य रसिक के नयनों की अभिराम माधुरी में समाकर वह सुख लेना हो ।
वास्तविक अनन्य पथिक को अपने अनन्य कुँज सेवन की ऐसी सेवा रीति अनुभव होती है जो अन्यत्र है ही नहीं । सो सहज एक मात्र उसी कुँज में सुलभ उन सेवाओं के वें सेवक सहज अनन्य रह पाते है और सभी सहज सेवा रस की निकुँजों में कुछ न कुछ अनन्य सेवा है । अनन्य पथिक , अनन्य सेवा पाकर ही सिद्ध हो सकता है ...अनन्य पथिक अगर श्रीवल्लभ जू की सीढ़ी उतर बाँके बिहारी नहीं जा सकते तो आपातकाल ही हो वें चिकित्सालय आदि भी नहीं जा सकते , वें बद्ध है । ज्यों एक वैद्य या चिकित्सक ..एक सैनिक नहीं होता त्यों सहज अनन्यता भजन से सिद्ध होती है । अनन्य रसिक में कोमलता होती है वह स्थिर रहकर सभी सेवा अलियों की सेवाओं से हृदय बिहारी को रिझा सकते है और जो यहाँ अपनी अनन्यता में पियप्यारी के अन्य सुख प्रतिबंधित करें वहाँ तो पियप्यारी का सुख चिंतन ही नहीं है । ऐसी कई सखियाँ भी है जिनके हृदय में यह भाव भी कि हम तो तृषित जी की रस रीति से नहीं तो उनका हमारे कुँज में आना उचित न होगा परन्तु प्रकाश या दीपक या लालसा सभी कुँज में सहज है । सभी कुँज की कुँजी ही तृषा है , हालांकि यह तृषा नवीन आकृतियों की है पर वह प्रति कुँज कृपा हेतु ग्राह्य है ।
बहुत सी रागिनी , वाद्य , भोग सेवा , श्रृंगार सेवा आदि सुख बहुत सी कुँजो में है पर उनके निवेदन में एक अनन्य नवीन भावना होती है । सभी निकुँज स्थलियों की सुरभता में प्रवेश हो तो अनुभव होगा कि एक कुँज की सुरभ दूसरी कुँज से सदैव नवीन और भिन्न है और ऐसी ही कई अनन्य माधुरियाँ सुलभ हो जाएगी परन्तु अनन्यता प्राप्त किन्हीं अन्य की अनन्यता का भी पूर्ण आदर रखते है सो उन्हें धर्मांतरण का उपदेश नहीं करते , प्रेम जीवन मय हो पाता है निजप्रियतम की सुख सेवाओं से । सुख सेवा के लिये अनन्य धर्म है सो वह ग्राह्य तो है पर किन्हीं की नकल से नहीं ...हृदय की लालसाओं से । एक-एक सिद्ध रसिक ने श्री पियप्यारी को जो नवीन-नवीन सुख दिया जो हम नहीं दे सकते वह उनकी अनन्य सेवा है सो अनन्यता तो स्वभाव सिद्ध होने पर ग्रहण होगी । हृदय में गौरश्याम सुख हो अपने और इन्हीं गौर श्याम पर अनन्त रँग रस बरसाकर उन्हें गहन ललित (नवकलिका) सुख दिए जावें , आधुनिक जीव दूध और उसके उत्पादों में कृत्रिम रँग-गुण डालना चाहता है वह उसकी धवलिमा से प्रसन्न नहीं ...सो अनन्यता में भीगना और उसके लिये आंदोलन करना दो भिन्न स्थिति है । नौका विहार के लिये पतवार से रस रानी में कोमल आंदोलन भी एक सेवा रहती है । हर सेवा का अपना अनन्य सुख है , अनन्य रसिक की भाव कुँज में चर्चा ही उस कुँज की गोप्य सेवाओं की होती है जो बाहर नित्य चाहने पर भी नहीं हो सकती सो प्रति कुँज के अनन्य नित्य सुख है , जिन्हें कतई उस सेवा से अवकाश ही नहीं सो ऐसी रसिली अनन्य सेवा रूचियों को बड़ी कोमलता से प्रणाम होना चाहिए । युगल तृषित । भजन रूपी बीज कृपा कर हर लता को कोई नवीन रस का फल सेवार्थ दे ही सकता है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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