रस रीतियाँ संक्षिप्त परिचय , तृषित
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रस रीतियाँ (अति संक्षिप्त)
गौड़ीय - त्याग विशेष (विरह पान)
हितरस - सेवा विशेष (सेवा दान)
हरिदासी - लाड़ विशेष (निजता श्रृंगार)
पुष्टि रस - श्रीकृष्णलीला पुष्टि विशेष
त्याग में सेवा प्रेम नित्य है
सेवा में त्याग प्रेम नित्य है
प्रेम में त्याग सेवा नित्य है
त्याग ही जब दिव्य प्रेम-सेवा हो तो मञ्जरी
सेवा ही जब दिव्य त्याग-प्रेम हो तो किंकरी
प्रेम ही जब सेवा-त्याग सब हो तो सहचरी
(गौड़ीय - हितरस - हरिदासी रस सब निभृत निकुँज तक है )
एक दिव्य वैष्णव की एक बात जोड़ता हूँ कि A to Z गौड़ीय । X Y Z हित रस । Z हरिदासी ।
पुष्टि रस में जहाँ भी श्रीकृष्ण है द्वारिका-मथुरा या ब्रज -कुँजरस या निभृत निकुँज भी सब ग्राह्य है । (पुष्टि रस के लिये कहूँ तो 0 to 9 , A to Z )
(निम्बार्क रस रीति से कहे तो आपकी अपनी स्थिति लीलाओं में कहीं हो Z तक आएगी ही , हरिदासी रस श्रीनिम्बार्क रस की निभृत श्रृंखला ही है , हरिदासी रस रीति सर्व के लिये सहज स्पर्शित नहीं सो निम्बार्क रस रीति आपको खोज खोजकर श्री बिहारिणीबिहारी तक लें आयेगी)
कोई रस रीति न्यून नहीं है , परस्पर सेवा अंग है । मानिये भवन एक कमरे कई । वृक्ष एक पत्ते कई । फूल एक कलियां कई । ज्यों रसोई में ही भोजन बनता है त्यों हर रस रीति का सेवा सुख की नवीनता हेतु अपना स्थान है ।
(कई बार हृदय स्थिति को समझे बिना दीक्षा ले ली जाती सो कहा है , मानिये कोई विरह में सुखी हो तो सेवा कुँज में सेवा कैसे होगी सो कहा )
रीति रस कुंजन भिन्न प्रकार।
एक रूप श्री स्वामी स्वामिनी,पथ भिन्न करन पुकार।
ज्यू रवि एक जगत सगरै को,ज्योति देय पात्र अनुसार।
एक सदन ज्यू भवन अनेका,सज्जा किन्ही विभिन्न सम्हार।
प्रीत कौ रीत सबनहु एका,चहै प्रियाप्रीतम वारि प्यार।
श्री हित हरिदास गोपालजु एकौ,किशोरीजु दीन्ही अंग निकार।
जु राधारमण वल्लभ बिहारी,पर्यायी एकौ सबन बिचार।
ज्यू देह एक अंगनि भिन्न-भिन्न हो,करो एक सबकोई अपकार।
अधिक कहे कहा होय "प्यारी",सुमनि एक पंखुरिनी अपार।
मञ्जरी में कैंकर्यता भी है प्रियासाहचर्य भी ।
किंकरी में मञ्जरी के त्याग भी है , सेवामय साहचर्य भी ।
सहचरी में मञ्जरी-किंकरी के सेवासुख न हो तो वह सहचरी नहीं ।
मञ्जरी के लिये प्रिया की निभृत सुख की संरचना है पर वहाँ पियप्यारी में आकुलता भरा उन्माद हो सकता है जिसके लिये मञ्जरी को स्व सुख त्यागने होते । रचती पियप्यारी सुख ही ।
किंकरियाँ सेवाओं से सुखी , इतनी कि सेवा शून्य नहीं , वह सेवा करती ही नहीं देती भी है ...भाव मे सहज निर्मल किंकरियों से प्रियतम स्वयं सेवा याचना कर सकते है , और वह पियप्यारी के सुख हेत ही जीवन मय सो दे भी सकती पर प्रियतम के प्रेम के प्रति आदर ही बढ़ता यहां (मैंने देखा कि प्रियतम सेवा माँग ले यह चिंतन से साधक उनकी उपेक्षा से वार्ता कर उठते)
यहाँ हमने कई प्रियतम के कैंकर्य के भाव कहे ज्यों , शतनाम ।
सहचरी को लाड़ देना है और पियप्यारी को लाड़ कैसे दे क्योंकि उन्हें विपुल लाड़ चाहिए सो सहचरी जब लाड़ देती है तो सब सुखों को मनाकर लाती है पियप्यारी हेत । इस स्थिति में वह कभी मञ्जरी के गुण तो कभी किंकरियो की सेवामय ऊहापोह दोनों में भरी होती है । सहचरी पियप्यारी को साहचर्य देती है , लेती ही नहीं । और यहाँ उनके हृदय में बृहद सेवामय त्यागमय उत्सव होता है प्रियाप्रियतम के निज सुखों का जिसमें वह पियप्यारी को भर स्वयं उस सुख देहरी (लता वेली या टांटी) हो सकती है ।
यहाँ मञ्जरी अत्यन्त त्यागवती होकर निभृत रस में दिव्यतम रूप श्रृंगार सहजता से सम्पादन करती है । ज्यों प्राण वायु प्रतिक्षण जीवन देकर भी अदृश्य है त्यों मञ्जरी किशोरी जू को अनवरत भाव लहरों से श्रृंगार रख अदृश्य सुख है ।
इन सेवामयी सखियों का सँग होकर भी पियप्यारी नव दम्पति सँग अनुपस्थिति का सुख देना , निभृत रस ।
एक भाव राग की उत्सवित सखियों की विलासमयी उपस्थिति का सँग निकुँज रस । जैसे गुलाब उद्यान , केले के उद्यान , सारँग कुँज ।
सभी भावों की सभी सखियों का सँग कुँज रस है । सब रस के फल फूलों के सँग पियप्यारी ।
प्रेम में बहुत रस रँग है , परन्तु जीव जानता ही होगा कि प्रेम का पोषण निजता देने से होता है ।
साँझा न करें
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