अधिवक्ता (काव्य) तृषित

अधिवक्ता

... कैसे देखूं मैं तुम्हें
आँखे तो झरोखा है , बस
मुझमें अब कोई
एक तो रहता नहीं ...
भीतर ।
जब तुम्हारे लिये इस
भवन से मैं निकला तो...
... तुम्हारे लिए
कुछ को मैंने भीतर रखा
और ...
फिर कुछ
दिव्य तितलियों को
तुमने भी तो भेजा
... और    ...
फिर इन सबने भी ...
कुछ न कुछ भेज ही दिया
तुमने तो कहा था यहाँ
मीठा अँधेरा रहेगा ...
पर सुनो न अब
बड़ा ही अजीब सा
अपरिचित शोर
भीतर से
आता-जाता ...
चलो नभ देखूँ
... धरा - वन - घन देखूँ
... पर कैसे देखूँ ,
अब बद्ध हूँ ...
विधि - निषेध अपराधी
क्या तुम ही ...
न्यायाधीश भी मिलोगें , अब ...
... दोगें न मुझे मेरा आनन
... हृदय कानन
... कब फिर इन पंछियों के
पँखों की फड़फड़ाहट से
फिर वही ...
रात की ठण्डी हवा
और बोल पड़ेगी ...
       जानते हो
... अगर यूँ कभी अब
हे राम ...भी यह ब्यार कह गई
मेरे अधरों पर तो ...
तो वो भीतर से कह पड़ेगें
क्यों ...कैसे आदि-आदि
... मेरे अस्तित्व के
अनन्त अधिवक्ता !!!

*युगल तृषित*

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