असहजता का सिमटना सहज उत्स , तृषित
*असहजता का सिमटना सहज उत्स*
असहजता ज्यों ही सिमटती या हटती है त्यों ही सहज उत्स झूम जाता है । जैसा कि ग्रीष्म की इस ताप प्रदायिनी वेला में घनदामिनी के विलास को मोर गा रहे है । सम्भवतः कोकिलायें मधुर रस फल पाकर कूक रही है ...प्रकृति कोमल जननि वत अपने निज परिकरों सँग विलसित उत्सवित हो । मनुष्य को तटस्थ कर ज्यों निजात्म जनों सँग ललित क्रीड़ा सहज खेली जा रही हो ।
पूर्व काल के प्रत्येक कृषक वर्षा के पूर्वानुमान लगा लेते थे तो यह नहीं कह सकते कि प्रकृति हानि भी कर रही है क्योंकि हानि स्वयं पीढ़ी दर पीढ़ी बुनी गई है ..यहाँ तो प्रचण्ड ग्रीष्म वेला में वन विहार के सारँगमय संकेत आ रहे हो ज्यों ... पक्षियों या खगों का भले आधुनिक मानव के लिये कोई महत्व ना हो परन्तु आप इसे यूँ अनुभव करेंगे जब कोकिला (कोयल) अभाव में आम्रफल आदि मीठे ना रहेंगे अथवा दुर्लभ हो जायेगें । वृक्ष-वल्लरी अपने किन्हीं अतिथियों के लिये उत्सवित है और वें खग रूपी अतिथि बखूबी से आभार देते भी है ...क्या मोर को मानववत लज्जा आई घन को पुकार या आभार देने में ...वर्तमान मानव मात्र असहजता की यात्रा पर है ।
ज्यों मनुष्य अपने मल को पहन नहीं सकता त्यों धरा भी पैट्रोल आदि रूपी मल से प्रदूषित मलिन हो उठती है ...धाम भावना के भावुकों से अपील है कि असहजताओं को अधिकतम छोड़कर सहजताओं को उत्सवित रहने दीजिये ।
श्री स्वामी जू की महिमा के पदों में नित्य उनका जमुनाजल स्नान और पान संकेत होता है अर्थात् नित्य तो वह भी नित्य सुपेय मधुरतम रहवे ही । वैसे वहाँ सुरँग विलास रूपी कल्लोलिनी से भी अर्थ है । आज भी कई रसिक आचार्य स्नान करते है श्री यमुना में और बहुत से क्षेत्रीय मल वहाँ नित्य छोड़ा जाता रहा है । श्रीहरि-श्रीगुरु दर्शन को गए पथिक को पता ही नहीं होता कि कब उसकी मलिनता का स्पर्श गुरुवत रसिकों को होता भी होगा । श्रीवृन्दावन वास का वरदान उन्हें ही है जो सत रज तम मलों का उत्सर्जन नहीं करते हो । वें प्रेम से ही पोषण लेते देते हो और रसगान के अतिरिक्त कोई पोषण ना हो ,वहाँ न्यूनतम आहार लिया जावें ताकि श्रीविपिन को भरपूर सुख नहीं तो मल तो भरपूर न दिया जावें । पूर्व रसिक सर्वस्व त्याग कर न्यूनतम आहारों सँग विपिन वासी रहे है ताकि विपिनराज का सहज उत्स बढ़ता अनुभव कर सकें ।दुर्गन्ध- प्रदूषण- मलिनताओं को उत्सर्जित करते हम केवल अधूरे ही लालसाओं से प्रयास में है क्योंकि सहज लालसा में अगर सहजता से सरस गति ना हो सके तो अपनी असहजता की वेदना और उसका अनुभव रहे ही रहे । ज्यों पँछी के उड़ने से प्रकृति की हानि नहीं होती हो त्यों ही हम हृदय की उड़ानों से गति कर पावें और कोमल सुखों को श्रीधरा को निवेदित करने के प्रयास करें । मुझसे तो जब भी कोई विपिन वास की अपील या आनन्द प्रकट करता है तो हम निवेदन करते ही है कि वास केवल रस लेने भर को नहीं अपितु श्रीवन की सेवामयताओं सँग रस देने से सिद्ध होगा । सेवक को कोई दूर नहीं करता है , दर्शक फिर भी प्रतिबाधित हो सकते है । आपने अनुभव किया ही होगा कि विपिन रसिक स्वरूप श्रीबिहारीजू , श्रीवल्लभजू , श्रीरमणजू में इस निभृत सुखों की रसवेला में दर्शक भले ना हो परन्तु सेवकों का त्याग नहीं किया गया है क्योंकि जो सेवा-सुख सहज श्रृंगार देता है उनका सँग रहना ही विहार है । जयजय श्री सहज सरस नित्योत्सवित वन विहार सारँग महोत्सवित जोरी की । युगल तृषित । श्रीवृन्दावन । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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