सहज उपचार , तृषित

*सहज उपचार*

प्रेम पथ में प्रीति-रोग बढ़ना ही सहज उपचार स्वीकार्य है । प्रेमास्पद का सुख जितना प्रेमी का जीवन गूँथ लें , उतना वह धैर्य से साँस लें पाता है । वरण प्रेमास्पद सुखसेवा शून्य प्रेमी की जीवनमय स्थिति भी रहती ... दाहित देह उपरान्त स्वयं के भार को लादने भर ।
सो नित्य रसमयता का उपाय है , नवीनता सँग सेवाओं का नया उत्स... ज्यों नई नवेली दुल्हन , परिणय पूर्व से ही एक स्वप्न विलास में भीगी होती है । वह लोक-काज में रहकर भी प्राणों से किन्हीं भावरस निकुँजों में छिपी रहना चाहती है । ...भावपथ की पुकार में सरस स्निग्ध हृदयों की प्रेमनिकुंज अधीश्वरी से विनय होती ही है कि ज्यों नवेली जू आप में नवीन उन्माद नित्य और गहरा कर उत्सवित हो उठता है त्यों हममें भी इन भाव लहरों की मधु- चोट किन्हीं भी स्थितियों में क्यों छूटे ?? साधनों से भाव की नवीन कलियों को सहजा ही जा सकता तो प्रार्थना या निदान के लिये आचार्य चरणों में शरण ही नहीं होती । वह भावबाधा भली ही है , जिससे स्वहित की भाव संरचना रसिक चरणों में निवेदन हो उठे । रस रीति में सभी स्थितियों की सुकुमारता सहज बनी रहती ही है । जीवन को नवीन रस और रस को नवीन भावाश्रय और भावों को नवीन श्रृंगार सेवा चाहिए ही । सहज शरणागति से भीतर प्रियतम विलासमय है तो उन्हें नवीन भावरस वाञ्छा रहेगी । स्वयं भाविनी नवेली किशोरी हृदयस्थली में आह्लादित है तो उन्हें रसिक प्रियतम के रस कौतुक की नवीनता के श्रृंगार सहज गूँथन करने का उत्स रहेगा । और हृदय अगर श्री प्रेमरस की सम्पूर्ण निधि अलबेले तन्मय होते मिलित तनु श्रीप्रियाप्रियतम श्यामाश्याम की सरस विलास सेवाओं का तृषित है तब रस रीति नवीन श्रृंगार रस रूचियों सँग सखियों को नित्य अपनी अलबेली युगल जोरी के मधुर उत्सवों में मोहित रखेगी । यहाँ हृदय से हियोत्सवों में समावेश होने पर प्रपञ्च का कतई विलास उत्सवों में प्रभाव नहीं पड़ेगा । यहाँ लोक की भावी नवेली दुल्हन भी परिणय चिंतन में उत्सवित रहती ही है और एक बार अपनी हृदय स्वीकृति बाद ज्यों यहाँ की मर्यादित परिजन भी  मंगलगान से उस दुल्हन (बन्नो)का उत्स बढाते सजाते है त्यों सहज स्वयं को रस रीति को अर्पित करने पर चहुँ ओर ऐसा ही मंगलमय गान अनुभव हो सकता है ...कभी फूलों से तो ..कभी कोयल से तो कभी बादल के गर्जन वर्षण से ।
यह काल्पनिक नहीं कह रहे है हम श्रीरूप पाद ने भी इन रस-प्रेम उद्दीपकों का वर्णन किया ही है श्रीउज्ज्वलनीलमणि में । सो भावुक कहते है कि श्रवण उपरान्त भीतर की वह ललित निकुँज माधुरिमा खोने लगती है तो ...नीला गगन तो नहीं खोता होगा न , तुम अगर सजनी हो तो रजनी... ना खोती होगी । श्रृंगार कहीं न कहीं से रस संकेत करते ही होगें कभी सुगन्ध होकर तो कभी कोमल रागिनी होकर ...फिर ज्यों प्रति स्थिति में केवल प्रेमास्पद के सुखों को सहजती बाँवरी हो गई हो तो कैसे खो सकती है यह श्रृंगारों की झनक-खनक ! प्रेमी को तो जल पीने भर से भी रस-श्रमित मधु कल्लोलित शीतलपेय पान के अनुभव हो सकते है । फिर वायु की लहरों का तनिक आदर बढ़ा सकोगे तो सुन सकोगे नवीन रागों की बातें । प्रेमी हो तो हठी भी रहो केवल प्रेमास्पद से ही जीवन या कुछ भी ग्रहण करने को फिर क्यों न सँग होगें ..सहज वें मनहर । प्रेमी की भावहानि होना अर्थात् प्रेमास्पद से सँग छूटना ही ...!! यह भावहानि सबके सँग भिन्न- भिन्न रीति से होती क्योंकि रसिक प्रियतम को ना जानें कौनसे आवरण नहीं भा रहे हो । किन्हीं की यहीं प्रेम नींद उड़ाकर सँग है तो किन्हीं स्थिति को स्वयं रसमय करतली से सम्बल देने हेतु स्वयं सैज सजाकर विश्राम देने को आतुर । सो हे रस सुधा में तैरती मीन , प्रत्येक मीन के सँग नृत्यमय इस रस सुधा को रिझाती रहो । हृदय रूपी वाटिका में शरद-हेमन्त-बसन्त मधुरिमाओं की बातों से पुलकित फूलों की क्यारियों को सरस आह्लादित दुल्हिनी के उत्स से सींच कर झूमकर झर जाने पर पहना ही दो अपनी प्राणनिधि को ।
सुनो उनकी पुकार नित्य सँग है और उनकी पुकार से उठा उनके सँग का लास्य मधुरिम शरदीय विलास ...जो फिर छूटता नहीं है , यह रास विलास ही निकुँज की कई रसिली नवीन मधुरिमाओं में नित्य लें ही जाता है । पूछों इन फूल बंगलों से कि कैसे शीतल श्वेतिमा-गीली धवलिमा-मधुर उज्ज्वलस्मिता लुटाते यह अपनी आचार्य माधुरियों के रसभेदों के लालित्य (लाड़) से सहज नवेली कोमल सेवा दे पाते है ...इस जेठ को सारँग सुनाकर कैसे घन आच्छादन हेतु मना पाते है । युगल तृषित । रस रीति सघन स्फुर्तियों स्पंदनों सँग लाड़मय गुँथी हुई है ...सो वह-वह कृत्य जो उनके लिये नहीं कर पाती हो उन्हें निवेदन करो कि मधुर होकर वें सभी केवल रिझावण करें तो प्राण पियप्यारी की ही । रीझै रहियौ रँगीली लाल ...पद रिझावण राखियो हमहिं अलिन नव बाल... जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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