परमार्थ-शिवार्थ-हितार्थ , तृषित
परमार्थ-शिवार्थ-हितार्थ
जिस जीवन में अर्थ परमार्थ से प्रफुल्लित हो वही ललित-लीला- सेवा संयोजक शिवार्थ-हितार्थ मधुरित है , जीवन की कोई भी यात्रा मधुरता तक पहुँचती है परमार्थ सँग ।
योगी जब सहज योग सिद्ध है जब कोमल सुरभित मन्द प्राण वायु का भोग नहीं अपितु उसका सम्पादन अपने श्वसन तंत्र से सहज करेंगे । फिर वह रोमावलियों से शीतल क्षेत्रों की शीतलता को स्मृत कर कन्दराओं में सिद्ध दिव्य आचार्यों को दीपकों से उत्सवित प्राण वायु की दीपावली मना कर योग सिद्धि से आचार्य सेवाओं की अनन्त उपस्थितियों सँग सेवाएँ रच सकेंगे केवल चेतन की किसी काल खंड में गति स्थिति रखकर भी दर्शक रहना योग नहीं है , योग में संयोग का वितरण सेवात्मक है जबकि भाँति-भाँति के चेतन सँग सचेतन कालखण्ड का मिथ्या अनुभव केवल स्वप्न या मिथ्या कथ्य है अर्थात् योगी में संयोगात्मक सेवा से प्राणायाम या समाधियों में रोम-रोम सृष्टि कर सकें शीतलता की । योगी विधाता की सृष्टि के भोग में ही योगी नहीं हुआ है वह इसके सम्पादन के लिये भी सृष्ट है । कोई पथ विधि-विधाता से अपभृंश हेतु होकर भी हो नहीं सकता । ईश्वर ने दिव्य यज्ञ और शास्त्र रूपी विज्ञान की सघनतम सृष्टि प्राथमिक की है , भोग-विषय के लाभ बताने वाले ज्ञानियों के काल खण्ड में कहीं विषय असंग के विज्ञान को अंकित कर साधन किया है तो वह है यजन । विरक्त त्यागी ही दिव्य यज्ञों के संकल्प शक्ति से भरे होते रहें है ...ज्यों ज्ञानी-ऋषि-वैदिकब्राह्मण अपने-अपने वैदिक ज्ञान से यजनवत सृष्टचक्र की सेवा रचते है । शब्दात सृष्टि , यहाँ चारुल आहुतियाँ इतनी निर्मल होती है कि उनसे सरस् सघन अनन्त सुफल की सृष्टियाँ सहज वर्षित होती है । अर्थात् वर्षा हो या शीतलता आदि सभी हेतु अनुष्ठान होता है , अनुष्ठान एक विधि विधाता को राग निवेदन वत इष्ट-हृदय मण्डल के धामपरिकल्पना में स्थिर गति है और वह जब सिद्ध होता है तब यज्ञ से वरुण रस की वर्षा वत वातानुकूल रचा जाता है, जिसके संकल्प में सृष्टि हित निहित होता है , ज्यों खग-वनचर-पादप आदि सेवक तत्वों की सार्वभौमिक वेदना से विधाता को एक प्रालाप निवेदन किया गया हो ...ज्यों मयुर की रस पिपासा से घन और नभाटन नहीं मनाकर बरसन सँग सेवित होते हो सो शास्त्र के कई विषय है , यूँ नृत्यशास्त्र - संगीत - आयुर्विज्ञान आदि भी शास्त्र ने दिया है जो कि विधि-विधाता को रूचि वत सेवाएं देने की कलात्मक सृष्टि है अर्थात् गान-नृत्य से भी ग्रीष्म-शीतल ऋतुओं के प्रतिकुलित प्रभावों को आह्लादात्मक विलास्य से विस्मृति रचकर सरस् शीतलता रची जाती रही है ... आज आधुनिकता ने सब सुलभ तो कर दिया पर जीवन का उत्स खो गया अथवा हमने भुला दिया । सोचिये दीपक राग से दीप प्रज्ज्वलन और माचिस से दीपक प्रज्ज्वलन कौनसी स्थिति में प्राणों तक आह्लादमय गति हुई है । मानव मात्र का अस्तित्व मानव कथ्य तब ही है जब वह एक कलश जल पीकर समुद्र की सृष्टि रच सकें , दो रोटी पाकर सबके लिये जो अन्न प्रकट करें उस दिव्य कृषक को आधुनिक सभ्य नगरवाद ने ग्रामीण कह भर्त्सना ही अनुभव कराई है जवकि वह लेता कम और सृष्टि को सेवात्मक उत्स देता अधिक है । अर्थात् हम अति सहज विधि अनुकूलित होते है तो हमें प्राकृत कृत्रिम संसाधनों से ताप निवृत्ति न कर सहज तप से शीतलता की सृष्टि का सौभाग्य मिला हुआ है । प्राणों से ऐसी शीतल आह्लाद लहर उत्सर्जित हो ज्यों ग्रीष्म में शीतल सुहावनी बिलावल भृमण कर रही हो और स्पर्श से फूलों में शरद बसन्त के कौतुक फूल रहे हो । हितार्थ मानव शीतल सौम्य प्रेम रूपी प्राणवायु का रवमात्र (वायुकण) भर है । अर्थात् विधाता ने केवल भिन्न-भिन्न पराग ही झारा है , पर इस पराग का पान राग कर सकती है ज्यों कोई अदृश्य शीतल प्रेमास्पद वत सँग हो और गुलाल - चन्दन छिटकन से स्वरूपित हो उठे त्यों मधुर रागिनियों से ...राग से पराग वत पुलक उठे सृष्टि ही । कोमल मधुर सेवक सृष्टि ही मानव कथ्य है ...अर्थात् रस के सरस विधायक से शरदीय समीर और सुधा निधि (सरोवर) की कलेवरित लहरन सँग मध्य में खिलते पद्म (कमल) का पराग कण ही उत्सर्जित हुआ था ज्योंकि जो जीवन यात्राओं में चेतना झरन हुई हमारी त्यों कोमल होकर लौटना प्रायः कठिन ही है । मुझे आश्चर्य होता है कि सरसतम प्रेम जीवन में प्रवेश पाकर मानव-मानव में निजहित-धर्म विचलित कितना हो गया है , प्राणवायु और जल तो सभी ने इतना लिया ही है कि जितना जीवन से लौटाया नहीं जा सकता है , सो प्रायः सिद्ध ऋषि जीवन पर्यंत यजन रचते और यजनार्थ घृत आहुति से धान्य-गौधन पुष्टि होती है त्यों परस्पर मधु आहुति से मदन (मधुता) की सृष्टि होती है । जीवन को यजन में आहुत करने का अर्थ शरीर का अंत नहीं अपितु जीवन के सार संचित निधि से यज्ञ की लालसा है । यजन (पूजन) हेतु भाव वस्तु की प्राकृतिक सुलभता सहज वांछित ही है ज्यों यज्ञार्थ घृत-गोमय आदि वाँछित है और घृतार्थ आहुति से गौ सेवा लालसा ही पुष्टि में प्रदत हो यह भावना है क्योंकि मधुर अमृत वत घृत हेतु गौ की सरस सेवा कामधेनु वत रचनी होगी । वही भजन भाव सृष्टि है , यजन में वस्तुओं का या उनके गुणों का यज्ञ (सृजन रचा गया है) त्यों भजन में भजनिय सुख श्रृंगार भजा गया है क्योंकि भजन में अगर इष्टदेव के सुख-सेवा श्रृंगार रूपी लीला कीर्तन का सृजन ना हो तो सहज ही उनका निज धाम हृदय में प्राकटय ना होने से भजन-परायण साधक की साधना में भेद सृजन अर्थात् वियोग सृजन होता है । विलास की सेवाओं में नाना श्रृंगारों हेतु श्रीधाम का ही सृजन फलित होता है । फल सदा बीज रूपी लालसा के लिये अमृत वत और विपुल निधि है । किसी लालसा के एक बीज से जब अनन्त फल सृष्ट हो सकते है तब एक घृत आहुति से कम से कम एक गौ की सृष्टि लालसा प्रकट हो । यजन में बलि तो यज्ञफल की ही है अर्थात् घृत पीने के लिये यज्ञ नहीं अपितु गौ सेवा के लिये घृत आहुति यह आहुति ही स्वार्थ की बलि है । प्राणी ने शास्त्र में स्वार्थों का संयोजन कर सृष्टि चक्र को विकृत किया है जबकि एक बीज से अनन्त फल फूल मिलते है तो एक लालसा रूपी बीज मन्त्र यज्ञ रूपी प्रेम भरित अनुष्ठान क्या सहजता से यह सब उन्हीं सरस् हृदयेश्वर के निजतम सुख धाम का सृजन नहीं कर सकता क्या ??? विदेशियों ने भारतीय गाँवों में कीचड़ वत अमृत देख कर ही सोने की चिडिया कहा और माना । मेरी बात भले अब भी आप ना माने पर गूगल को स्वीकार्य कर ऋषि -गुरु में परवशता सिद्ध कर चुके है हम ...टिप्पणी में भले आलोचना हो परन्तु आश्रय तो सब ही है कहीं न कहीं , कटाक्ष से अभावों की परवशता भँग नहीं होती । पूर्णतम के ही पथिक हम किन्हीं माध्यमों से स्वयं को खोजते अथवा वस्तु खोजते हुए भी आकर सृष्ट हुए है इस विचार मण्डल या स्व-लालसा मण्डल (भुव) पर अर्थात् ऋषि सँग लालसा । जिन्हें भी सर्व बोध यूँ ही सहज सिद्ध होता हम मति शुन्य हो नमन कर पड़ते ज्यों दिव्यात्मा के दर्शन बन गए हो । गूगल तो फिर भी इन हमारी लालसाओं से हममें से ही फलों को सजा कर एक प्रदर्शनी / सेमिनार (उत्स) है । सहज सुलभता नहीं इन कृत्रिम गुरुओं में ...एक नाम की खोज से कई नामधारी सहज दिखते है यहाँ उनमें परिचित जब ही मिलता है , जब उसका नाम जितना लोकप्रिय अन्य का ना हो ... अहंकार की लालसा दे वह सद्गुरु तत्व नहीं , अर्थात् विधाता के कौतुक में कितना ही छेड की जावें असुरत्व रूपी अहंकार-लोभ - मोह-काम आदि-आदि रोग ही बढ़ रहे है । सहज प्रसिद्ध या नायक या सिद्ध वह ही है जो स्वभाविक स्वरूपित नित्य हो । अर्थात् दुराग्रह से स्वयं को रचता मलिन जीव नहीं , अपितु सद्भाव से सर्व विष को अमृत वत पीते शिव.. ही अर्थ का अर्थ ..सर्वहितकर शिव में शिवमय कल्याण का पथिक है । जीव अपने प्राण तत्व का नित्य नवीन आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त करें तो वह सोम रस का एक पथिक है । सो शिवत्व की यात्रा सौम्य सुकुमार स्कन्द या गम्भीर-गहन- मधुर-शास्त्र-श्रृंगार लिपिक रूपी गणेश रचती है कि गौवत्स रूपी धर्म रचती है जो कि धान्यार्थ परिक्रमा में धर्म द्वारा नियुक्त सेवक वपु आनन्दित नन्दी है । सभी देवताओं में श्री शिव रूपी समाधान ने ही वाहन वत गौवत्स स्वीकार किये है क्योंकि शिवार्थ गति में वह धर्मारुढ़ होकर है । वह ही प्राणी के हिततम है , वह ही हिततम् हितनिधि रूप झाँकी देकर काल के ग्राही जीव को महाकाल में उत्सवित सघन नित्य लीलाओं हेतु अग्नि और रस अर्थात् नयन और श्रवण और भी सभी इन्द्रिय अनुभवों (सुरभित शरदस्पर्श रसनालास्य भावित आह्लाद आदि-आदि) का दिव्य उत्स सुकुमार अनुरागित कैंकर्यनिधि (सेवातुर) श्रीश्यामाश्याम और उनकी सृष्टि की बीज शक्ति रूपी सेवालालसाओं की मधुतम मकरनन्दित सुकुमारित सुरभित सुकोमल परिमल सरोवर के पद्म मराल आदि श्रृंगारों से उत्सवित कैंकर्य श्रृंगारों की भंडारक श्रीमहाप्रभु हितहरिवंश चन्द्र जू का कोमल नादित कौतुक हितं वन्दे हृदय में रव-रव (वायु कण) रेणु-रेणु सँग पद्म झाँकियों की रचनाओं की सेवाओं की ओर धकेलते है । युगल तृषित । ...परन्तु दिव्य वैकुण्ठ -वृन्दाविपिन-साकेत-मानसरोवर की रचना के लिये प्रकट हम चेतन अर्क बिन्दु वास्तव में तो परस्पर पीड़ा को देकर नर्क ही रच रहे है । स्मृत रहें एक बीज अनन्त फल । एक कृत्य अनन्त फल (यहाँ अब हम ...अपराधी भयभीत हो उठेंगे , अगर एक कुकृत्य के अनन्त फल भोगने पड़े तो... पर एक बीज शक्ति से सर्वदा अनन्त शिवतम प्रफुल्ल रसों को हमने स्वीकार्य ही किया है ) ...एक मोर और गहन वर्षा । रस सेवा सरस हिततम वर्षण का बिन्दु होकर भी सुख वर्षण के सघन उत्स में भीगकर नाद बिन्दु सुख सेवाओं का एक उत्स है ...हितं वन्दे ।
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