श्रृंगार रस (प्रस्तावना) , युगल तृषित
*श्रृंगार रस* (प्रस्तावना)
प्रेमी के अतिरिक्त यह रस किन्हीं के लिये भी सुलभ नहीं अथवा अप्रेमी विज्ञानी जन चन्द्र चकोर या घन-मोर या जल मीन आदि वृतान्तों पर केवल हास्यास्पद हो सकते है । सभी शास्त्र प्राणी मात्र के स्वभावों से सहज सिद्ध है सो उनमें भी रहस्यमय माधुर्य से श्रृंगार रस की वार्ता केवल प्रेम प्रसंगों में आती है । और चूंकि भिन्न-भिन्न प्रेमशून्य कारणों से शास्त्र सँगी को वहाँ अपनी भावना वत ही अनुभूति होती है । प्रेमी सभी श्रृंगारों में भिन्न-भिन्न गुण तो मानता ही है परन्तु प्रत्येक श्रृंगार का प्रथम रसमय गुण प्रेम ही मानने पर उस श्रृंगारधारी की वास्तविक माधुरी स्पष्ट होती है ।
अनन्त श्रृंगार है और उनमें अनन्त सुख है और प्रत्येक श्रृंगार का श्रृंगार है प्रेम । परन्तु हे प्रेमी ...प्रत्येक प्रेमी निज प्रीतिकैंकर्य भीगे सेवामय स्वभाव से प्रत्येक श्रृंगार में घोल रहा होता है और श्रृंगार, ...आज तुम्हें जानना है अपने ही श्रृंगारों को जबकि तुम्हें धारण करने है ..प्रेमास्पद के नवीन सुख श्रृंगार ..अहा री ...आह्लादित उन्मद रसालय सुधा थाल थामे प्रति नवेली सहज मञ्जरियाँ, अहा ..पर ,आज इष्ट सुख स्मृत ही किसे ... शिवलिङ्ग पर दुग्धाभिषेक के विज्ञान को जानकर प्राकृतिक कल्याण के लिये दुग्ध प्रवाह करने में वह सुख नहीं जो वहाँ शीतल प्रेम सेवा लक्ष्य से जीव को शिवार्थ निकट कर सकती है । वैष्णव जन रज या चन्दन तिलक लगाते है , अगर वह यह विज्ञान हेतु ही धारण करते है तब जिनकी पद रति धारण की है उन्हें उत्स कैसे होगा क्योंकि वहाँ तो त्रिविध दैहिक हेतु ही प्रयोग हुए है ...अनुरागात्मक वर्द्धन सुख केवल प्रेमियों को प्रफुल्ल करता है , अतः धारण किया प्रत्येक श्रृंगार अप्रेमी से विज्ञानात्मक कहा जा सकता है परन्तु दो प्रेमियों के मध्य एक ही विज्ञानमय सुख है ...प्रेमरस । सो प्रेम वर्द्धन हेतु जो श्रृंगार ग्राह्य है वह केवल प्रेम का वह सुख है जो प्रेमशून्य स्थितियों के लिये केवल प्रश्न प्रायः है । प्रेम एक ऐसा विज्ञान है जो विज्ञानी को स्पर्श करता है तो वह वैज्ञानिक नहीं रह सकता । वस्तुतः आज विज्ञान ना भी माने , तो भी विधाता अपार प्रेमी है और उनकी प्रत्येक संरचना में गहन प्रेम के कौतुक (लीला) है । शास्त्र-आचार्य स्पर्शित संस्कृतियों ने प्रकट में श्रृंगार रसों का जीवन श्रृंगार मय सँग किया है । आज दुर्लभ है कर्णपुट(कानों) में फूलों(कर्णिकार आदि) का श्रृंगारमय झूमका पहने युवतियों के समूह । अगर फूल आदि श्रृंगार कोई समूह धारण भी रखता होगा तो आधुनिक नागरिक उन्हें भील-वनवासी समझते होगें । परन्तु जीव की स्थिति कितनी ही विभत्स होकर विवर्त नारकीय हो उठे ...उसके जीवन को कोई प्रेम से श्रृंगार कर सकते हो तो वह है मात्र प्राणेश प्रियतम श्याम ...श्यामसुन्दर । ऐसे श्रृंगार सुन्दर कि श्रृंगार रस के सभी शिखर इनकी माधुरियों को स्पर्श कर जीवन्त रहना चाहते हो । पर हे बाँवरी , अशुद्ध असुर चेतनाओं को ही नादित वादित कोमल रागों से उत्स नहीं उठता वह मधु रागिनियों के सँग से भागते है ज्यों मृत्यु देखकर कोई भाग छूटे जबकि अधर राग के सँग अनुरागों के दीपक प्रज्ज्वलित करते प्रियतम स्वयं चन्द्र वत भीतर प्रवेश हो जाते है , बेसुध चकोर नयनों से सो श्रृंगार रस लेकर वह दे रहे है और रागिनियों को लास्य । श्रृंगार रस सहज है पर हम सभी असहज सो श्रृंगार असहज अनुभव हो रहा है , जबकि इस भारतीय धरा के क्षेत्रों के नाम भी श्रृंगार से सम्बंधित रहे है ...काश्मीर(सघन केशर क्षेत्र) । मलयाचल (चंदन भरित पर्वत समूह) आदि । ज्ञान की सिद्धि श्रृंगार सिद्ध होने पर है अर्थात् नगर में जीवन देते वैद्य की उपस्थिति है तो प्रत्येक में नवकैशोर्यमय सौन्दर्य श्रृंगार रहेगा ही । श्रृंगार जीवन के उत्स को ध्वनित करते है , शास्त्र-परम्पराओं ने प्राणिमात्र के लिये नव-नवीन श्रृंगार रचे है , जो कि प्रायः छूट चुके है और सम्भवतः दुर्लभतम हो गए है । वर्तमान आधुनिकता का संग्रहालय विशेष नहीं होगा क्योंकि उसके मूल में प्रेम-श्रृंगार शून्यता स्पष्ट है (केवल मशीनें और प्लास्टिक) और कोई विशेष सर्वहितमयी नित्य स्थिर नवीनता भी नहीं है । विदेशी पर्यटक भारतीय धरा पर आधुनिक बहुमंजिला ईमारतें नहीं अपितु परम्परागत और प्रकृति गत श्रृंगारों को छूने आते है जिन्हें हम लोक-संस्कृति कहते है , जो कि जीवन में हमारे भी प्रायः अब नहीं ही है केवल पर्यटकों के लिये ही व्यापार भर हेतु है । उत्सवमयी दिव्यपूजन पद्धतियाँ भी श्रृंगारों को नित्यता देती रही है परन्तु जो भारतीय स्वयं ही रासायनिक अंजन नयनों में आँजते हो वह कैसे अपनी इष्ट ईश्वरी को वह काजल (अञ्जन) देगें जो उनका अभिष्ट सुख होगा । प्रश्न उठेगा कि कैसा होगा वह अञ्जन सुख ...तो पुरातन में संस्कृतियों ने इन्हीं दैविक श्रृंगारों को परम्परागत धारण रखा है । आज भी हमारे जीवन में कई श्रृंगार केवल धार्मिक प्रयोजनों में प्रवृत्त होने से प्रौढ़-जीवनमय है । विपिनबिहारी ने अपनी प्रियतमा से कुछ अपेक्षा की है तो उनके श्रृंगारों के उत्स को श्रृंगारितसभा-मण्डल में धारण रखने की और शास्त्र या रसिक वाणी में आभरित सभी श्रृंगार उपचार वह अब केवल भावात्मक ही विलस सकते है , हम धरा वासी उन्हें जानना ही नहीं चाहते तो रसीले पियवर को देगें कैसे ? ...क्योंकि यहाँ हम चन्दन भी नित्य नवीन स्वयं तैयार करने की अपेक्षा किसी भी चूर्ण समूहों को (पाउडर) चन्दन मानकर सेवा देने लगे है । जहाँ तुलसी की कण्ठी असली सुलभ होना दिव्य कृपाशीष हो गया है , वहाँ स्वार्थी कम्पनियाँ डिब्बे में कौन दिव्यात्मा है ...जो हमें चन्दन की लताओं का राग भर कर ही देती होगी सप्रेम ...आपके-हमारे आराध्य हेतु (सो सेवक स्वयं चन्दन लेप आदि नित्य नवीन रचें अपने प्रियतम हेतु ) ...क्या जो दूध गौ देती रही हमें ...वही दुग्ध उत्पादक (डेयरी समुह) दे रहे है अथवा मिलते-जुलते पदार्थों का मिश्रण । फिर कैसे प्रेमास्पद प्रियतम को उन सब दिव्य श्रृंगारों में निहारा जावें जो शास्त्र या रसिकों ने कहा , बड़ी सहजता से वनवासी कहलाकर दिव्यात्माओं ने कर्णपुटों में परपंरागत पहने कर्णिकार आदि के झूमते झुमके , हमें वहीं अनुभव क्रमशः देने को , पर आज स्त्री प्लास्टिक - कागज के झूमके से ही सूखी है ...तो सहज फूलते कर्णिकार (कनक चम्पा) खो ही गए प्रायः । आधुनिकता को उपदेश देते समय कहा जा सकता है यह सभी श्रृंगार ज्ञान-वैराग्य-त्याग या भक्ति है , इन्हें प्रेम कहना प्रायः अप्रेमियों को उत्स कैसे देगा ...परन्तु श्रृंगार रस ने कहा कि कर्णिकार के पुष्प गोपियों (नायिका) के नृत्यराग से पुलिकत हो उठते थे ज्यों वह सभी स्वयं को श्रीकृष्ण कर्णपुट का अनन्य श्रृंगार फूल मान संक्रमित हो उठे हो । वह थककर-लटकी हुई फुलनियाँ झूम जाती हो ज्यों श्रीप्रियतम बड़े अनुराग से सुन रहे हो तुम्हारी बातें बाँवरियों ...और कौन प्रेम बाँवरी नहीं जानती कि वह ही सुनते-सुनाते नवघन श्याम हमारे हृदय के रँग-रँग के रँगीले लाल तो फूलों से फूलों की बातें सुन लेते ऐसे फूलभृमर है जिन्होंने फूल श्रृंगार ही पहन लिया हो , प्रेम में भीगी दशाएं तो कोमल प्रफुल्ल फूल से अभिन्न हुई फूल दशा है , सो फूल-फूल की प्रफुल्लता का उत्स सुन लताओं से झूमते-झूलते फूल रूपी प्रियतम का यह फूल दौणपात्र सुगन्धित रागों का उत्स जो कर्णपुट को सजा रहा है लास्यमय शीतल सुरभित अनुरागों में ...कौनसा विज्ञान खोजेगा अब अदृश्य हुआ श्रृंगार रस और उससे सजता प्रेम अर्थात् यहाँ कोमल ध्वनि सुनते प्रियतम कोमल ध्वनियों की सुगन्धों सँग कोमल कर्ण श्रृंगारों में ...खोजते प्रेम फुलनि अलियाँ । इन प्रफुल्ल कोमल शीतल प्रेम रस श्रृंगारों में कोमलता- सुगन्ध- मधुरता-नवीनता-राग- नृत्य क्या नहीं है ...और मैं ...मैं तो एक असमर्थ दशा भर जो हृदय को पुष्पावली-खगावली चित्र भर से सजा विपिन देने में भी असमर्थ ...श्रृंगार रस हीन एक तृषित । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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