रूचि , तृषित

*रूचि*

सिद्ध ज्ञान स्वयं को ब्रह्म से अभिन्न करने का प्रयास ही है और वहाँ सर्व स्थिति - भावना आदि में सहज स्वीकार्यता होनी ही चाहिये अर्थात् आते हुए बाणों को नमन और जाते हुए पुष्पों को नमन , वास्तविक बोध से विपत्ति काल चेतना का श्रृंगार काल ही अनुभव हो सकता है ।
ज्ञान मार्गियों को सिद्ध दृष्टि अभाव में शेष केवल अज्ञानमय दिखता है । उन्हें प्रेमी के हृदय वासित कर्ता-भर्ता-भोक्ता स्पष्ट ही नहीं होते , ज्ञान मार्गी जब प्रेमी हृदय को अज्ञान समझ सकता है तब तो सर्वसामान्य के लिये कुछ भी समझ बनेगा ही नहीं । यह अधुरा बोध है , क्योंकि वास्तविक ब्रह्म उपासी कण मात्र में ब्रह्म रूपी परमाणु को छू सकता है सो ज्ञान पंकज को पंक का मल नहीं कहता , अपितु वह भावी पंकज को प्रणाम कर सकता है ।
जगत स्व हेतु संचालित गतिमय है और प्रेमी प्रेमास्पद रुचि हेतु , शैव अगर खोजकर बेलपत्र अर्पित करते हो या वैष्णव तुलसीदल खोजते हो तो यह अधूरे ज्ञानी को अन्य पतों की उपेक्षा दृश्य होगी । जो सुख तुलसीदल से श्रीहरि और बेलपत्र (बिलपत्र) से श्रीहर को मिलता है वह प्रेमी को अनुभव है सो प्रेमी वह है जिसकी रुचि स्वभाव माँग सभी प्रेमास्पद से अभिन्न हो गई हो । अब अधूरे ज्ञानी को प्रतीत होगा कि जीव रूचि तलाश रहा है जबकि प्रेमी सहज नित्य सेवाओं में गया ही इसलिये है कि वह एक-एक रसचेतन आनंदनूपुर को नृत्यमय विलासित पियप्यारी के सुखों में पिरो रख सकें । यही प्रेमी बड़ी सहजता से भिन्न स्वाद आहार को प्रसाद वत खिंचड़ी बनाकर पाने पर भी ज्ञानी को हिला डालते है कि यह भिन्न-भिन्न स्वादों को एकत्र कर क्यों पा रहे है ।  वस्तुतः प्रेमी की अपनी कोई अमनिया रूचि नहीं , वह तो स्वामी के श्रृंगारों को सहजने भर सेवित है और इन श्रृंगारों के सुख का दास ही है क्योंकि झूमका कर्णपुट सँग ही हर्षित है , कँगन कर में ही झूम रहे है । अब प्रेमी इनकी स्थिति को प्राणों की रूचि मान इन्हें सुख दे तो यह प्रेमास्पद को सुख देगें जिससे प्रेमी को सहज उत्स रहेगा ही । सिद्ध ज्ञान प्रेम के पथ को झंकृत कर सकता है क्योंकि उसमें ब्रह्म सुख स्पष्ट होगा और वह प्रिय लगेगा ही । परशुराम जी को एक धनुष भँग पर आवेश आया क्योंकि उनमें भगवान शिव के लिये इष्ट भावना है । सो प्रियतम सुख सम्पति की हानि पर प्रेमी का प्रेमावेश केवल प्रेम से ही स्पष्ट होगा । क्योंकि पृथक सुख-रूचि-अपेक्षा त्यागने पर भी प्रियतम की भाव आहारित कणिका मात्र आह्लादिनीवत् प्रेमी को वन्दय है । लोक में भी गहनतम ज्ञानमार्गी भी सामान्य कागज और धनवत जारी कागज में भेद कर सकते है और यहाँ एक कागज के प्रति अति ममता से उसे सहज कर वह अन्य कागजों की उपेक्षा हो गई यह चिंतन नहीं रखते है , यहाँ स्व की ही उपस्थिति है जबकि प्रेमी के धन तो प्रेमास्पद की झरित या आभरित श्रृंगार द्रव्य ही है । सो ज्यों नोट को कूड़े वत बिखेरा देख कर धनमद में प्राणी आहत होगा त्यों प्रेमास्पद के श्रृंगारों में सुख का अल्पेश न्यून होने पर प्रेमी का उत्स प्रभावित होगा और यह श्रृंगारों के हेत आह्लाद लहर खोकर जीवन के किसी पारितोष को प्राप्त करना यहाँ सहज पथिक को सहज नहीं हो सकेगा क्योंकि जब तक प्रेमास्पद को सुख ना हो तब तक प्रेमी अलि दूर लौट नहीं सकती है , और प्रेमास्पद के सुख की लहरों (तरंगों) का यह अनुभव प्रेमी के हृदय में प्रकट हो सकता है न्यूनतम फ्रीक्वेंसी सँग । अति न्यूनतम दृष्टि से दृश्य होने पर सागर कभी शान्त नहीं हो पाता है ।  युगल तृषित । सम्मोहने श्रीवेणु के सम्मोहन में बद्ध पियप्यारी रसिली सरकार । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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