रास क्या है ?

इस संसार में सब व्यक्त हो सकता है कुछ के अलावा वो है भगवान और उनकी लीलायें ...
भक्ति का विशुद्ध रुप है परा - भक्ति
( प्रेमाभक्ति ) यें अप्राकृत है ,
इसकी अनुभुति भगवत् इच्छा से ही
सम्भव है . इस अनुभुति में कोई
साधन नहीं होता ... ना चाह ही होती
है . आज भी हर पराभक्त की एक
इच्छा रहती है रास ... महारास ...
बस | ना मोक्ष ना ही कोई सुख ...
इसी सन्दर्भ में रास को जानने हेतु
मेरे दो पोस्ट पढें . इसे जब तक मनन करें जब तक समझ ना आयें ...
                     *** रास***
'रास' शब्द को सुनकर हम लोग प्राय: रास-मण्डलियों द्वारा जो रासलीला होती है, इसी की बात सोचते हैं, दृष्टि उधर ही जाती है L अवश्य ही यह रासलीला भी उसका अनुकरण ही है, उसी को दिखाने के लिए है, इसलिए आदरणीय है l  परन्तु भगवान् का जो दिव्य रास है, उसकी विलक्षणता थोड़ी-सी समझ लेनी चाहिए l
       'रास' शब्द का मूल है - 'रस' और रस है भगवान् का रूप - 'रसो वै स:l ' अतएव वह एक ऐसी दिव्य क्रीडा होती है, जिसमें एक ही रस अनेक रसों के रूप में अभिव्यक्त हो कर अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करता है - वह एक ही रास अनन्त रसरूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, स्वयं ही आस्वादक, स्वयं ही लीला, धाम और विभिन्न  आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में लीलायमान हो जाता है l और तब एक दिव्य लीला होती है - उसी का नाम 'रास' है l  रास का अर्थ है - 'लीलामय भगवान् की लीला' ; क्योंकि लीला लीलामय भगवान् का ही स्वरुप है, इसलिए 'रास' भगवान् की स्वरुप ही है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं l भगवान् की यह दिव्य लीला तो नित्य चलती रहती है और चलती रहेगी, इसका कहीं कोई छोर नहीं l  कब से आरंभ हुई और कब तक चलेगी - यह कोई बता ही नहीं सकता l कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी  महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमारी इस भूमि में भी 'रासलीला' का अवतरण होता है l  यह अवतरण भगवान् श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय हुआ था l  उसी का वर्णन श्रीमद भागवत में 'रासपंचाध्यायी'के नाम से है l पाँच अध्यायों में उसका वर्णन है l  इन पाँच  अध्यायों में सब से पहले वंशीध्वनि है l वंशी ध्वनि को सुनकर प्रेमप्रतिमा गोपिकाओं का अभिसार है l  श्रीकृष्ण के साथ उनका वार्तालाप है, दिव्य रमण है, श्रीराधा जी के साथ श्रीकृष्ण का अन्तर्धान है, पुन: प्राकट्य है l  फिर गोपियों द्वारा दिए हुए वसनासन पर भगवान् का विराजित होना है l  गोपियों के कुछ कूट प्रश्नों का, गूढ़ प्रश्नों का, प्रेम-प्रश्नों का उत्तर है l  फिर रास-नृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वन-विहार - इस प्रकार अंत में परीक्षित के संदेहान्वित होने पर बंद कर दिया जाता है - रास का वर्णन l. संकलन - सत्यजीत "तृषित"  !!

श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के ‘पाँच अध्याय’ उसके ‘पाँच प्राण’ माने जाते है भगवान श्रीकृष्ण की परम अंतरगलीला, निजस्वरुपभूता गोपिकाओ और हादिनी शक्ति श्रीराधिका जी के साथ होने वाली दिव्यातिदिव्य क्रीडा है.


भगवान श्रीकृष्ण आत्मा है, आत्माकार वृति श्रीराधा है और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ है. उनका धाराप्रवाह रूप से निरंतर आत्मरमण ही ‘रास’ है.‘रास’ शब्द का मूल- रस है और रस स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही है-‘रसो वै स:’ जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसो के रूप में होकर अनंत–अनंत रस का समास्वादन करे उसका नाम रास है.

इस पंचाध्यायी में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, रमण, श्रीराधाजी के साथ अंतर्धान, पुन: प्राकट्य, गोपियों के द्वारा दिए हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रासक्रीडा, जलकेलि, और वनविहार का वर्णन है जो परम दिव्य है.

समय के साथ ही मानव मस्तिष्क भी पलटता रहता है कभी अंतर्द्रष्टि की प्रधानता हो जाती है और कभी वहिर्द्रष्टि की आज का युग ही ऐसा है, जिसमे भगवान की दिव्य लीलाओ की बात तो क्या, स्वयं भगवान के अस्तित्व पर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है ऐसी स्थिति में इस दिव्यलीला का रहस्य न समझकर लोग तरह-तरह की आशंका प्रकट करे इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है.


यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भांति जड़ नहीं होता. जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की द्रृष्टि में नहीं, यह देह है, और यह देहि है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है. अप्राकृत लोक में - जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है - सब कुछ चिन्मय ही होता है, वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल भगवान की लीला की सिद्धि के लिए होती है .इसलिए जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओ के सम्बन्ध में विचार करने लगता है
तब वह अपनी पूर्व वासनाओ के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं, और क्रियाओ का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है. जड़ जगत की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता, इस रस की स्फूर्ति तो केवल परम भावमयी श्रीकृष्ण प्रेमस्वरुपा गोपीजनो के मधुर ह्रदय में ही होती है दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.

भगवान के समान ही गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानंदमयी ही है साधना की द्रृष्टि से भी उन्होंने न केवल जड़ शरीर का ही त्याग कर दिया है बल्कि सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से, अनुभव होने वाले मोक्ष – और तो क्या,जडता की द्रष्टि का ही त्याग कर दिया है उनकी इस अलौकिक स्थिति में स्थूल शरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्ध से, होने वाले अंग-संग की कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती 

“यह उच्चतम भावराज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन, से परे है. आवरण भंग के अंतरंग चीरहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते है तब इसमें प्रवेश होता है.”.

भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त, मांस, अस्थिमय है ही नहीं. वह तो सर्वथा चिदानंदमय है उसमे देह-देही, गुण-गुणी, नाम-नामी, लीला और लीलापुरुषोत्तम का भेद नहीं है, श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण है. श्रीकृष्ण का मुखमंडल, जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण है, श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते है, उनके कान देख सकते है, उनकी आँखे सुन सकती है, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनके हाथ से देख सकते है, आँखे चल सकती है, श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने के कारण वह सर्वथा पूर्णतम है.

भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी स्रष्टि का है, और न दैवी ही है, इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है उपनिषद् में भगवान को ‘अखंड ब्रह्मचारी’ बताया गया है फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए. तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भगवती सृष्टि थी. भगवान के संकल्प से हुई थी. भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस दिखलाई पड़ते है, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है इससे यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवतराज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं .
साधना के दो भेद है-
मर्यादापूर्ण वैध साधना.
मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना.

दोनों के ही अपने अपने स्वतंत्र नियम है.


मर्यादापूर्ण वैध साधना - वैध साधना में, जैसे नियमों के बंधन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का, और विविध पालनीय कर्मो का त्याग, साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है. 


मर्यादारहित अवैध प्रेम साधना- अवैध प्रेम साधना में इनका पालन कलंक रूप होता है, यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेमासाधना का साधक जान बूझकर छोड़ देता है, बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है ये वहाँ अपने–आप वैसे ही छूट जाते है जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है.

भगवान ने गीता में कहा है- “ सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ”.

‘हे अर्जुन! तू सारे धर्मो का त्याग करके केवल एक मेरी शरण में आ जा’.


श्रीगोपीजन साधना के इसी उच्च स्तर में परम आदर्श थी इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म – सबको छोडकर, सबका उल्लघन कर एक मात्र परमधर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिए अभिसार किया था उनका यह पति-पुत्रो का त्याग यह सर्वधर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप “स्वधर्म” है. इस सर्वधर्म त्याग रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों जैसे उच्च स्तर के साधको में ही संभव है क्योकि सब धर्मो का यह त्याग वही कर सकता है जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य, देवदुर्लभ, भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुका है. वे भी जान बूझकर त्याग नहीं करते. सूर्ये का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तेल दीपक की भांति स्वतः ही ये धर्म, उसे त्याग देते है जिसको भगवान अपनी वंशी ध्वनि सुनाकर – नाम ले-लेकर बुलाये वह भला किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है .
भगवान का अंतर्धान होना – वियोग ही संयोग का पोषक है. मान और मद ही भगवान की लीला में बाँधक है भगवान की दिव्यलीला में मान और मद भी, जो कि दिव्य है इसलिए होते है कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो. भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अंतर्धान हो गये. जिनके ह्रदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं वे भगवान का, पास रहने पर भी दर्शन नहीं कर सकते .परन्तु गोपियाँ तो, गोपियाँ थी उनसे जगत के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं है भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई इस बात को रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है गोपियों के शरीर-मन-प्राण - वे जो कुछ थी, सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये. उनके प्रेमोन्माद का वह गीत - जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है गोपियों के उस ‘महाभाव’ उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’ को देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके उनके सामने ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ:’ रूप से प्रकट हुए.


भगवान ने स्वयं कहा –गोपियों मेरे अंतर्धान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखान नहीं था बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी उज्जवल और समृद्ध करना था. जब राम अवतार में जनकपुरी कि सखिया राम चंद्र जी को देखती है तो वे मन-ही मन भगवान को पाने की इच्छा करती है और जब भगवान राम वन गये तो अनेकोनेक ऋषि-मुनि आदि उनके रूप को देखकर सोचते थे कि हमारा भी भगवान के साथ विहार हो.


भगवान ने उनके मनोभावो को जानकर कहा - कि इस अवतार में तो मैं मर्यादा पुरुषोतम हूँ, पर अगले अवतार में सबकी मनोकामना पूर्ण करूँगा ये गोपियाँ वही दण्डकारण्य के ऋषि मुनि थे, जिनका जीवन, साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका है. जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है.

वे ही गोपियाँ कैसे, भगवान के बुलाने पर न जाती. शुकदेव जी ने परीक्षित जी को उत्तर देकर शंकाएँ तो हटा दी परन्तु भगवान की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया, संभवतः उस रहस्य को गुप्त रखने के लिए ही ३३वे अध्याय में रासलीला प्रसंग समाप्त कर दिया गया. वस्तुतः इस लीला के गूढ़ रहस्य की प्राकृत जगत में व्याख्या की भी नहीं जा सकती.क्योकि यह इस जगत की क्रीडा ही नहीं है .  ... सत्यजीत

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