Guru kumhar shishya kumbh

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट
आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता आवश्यक है। इसके बिना आत्मकल्याण का द्वार खुलता नहीं। जिस सद्गुरु का माहात्म्य वर्णन शास्त्रकारों ने किया है, वह वस्तुत: मानवीय अंत:करण ही है। निरंतर सद्शिक्षण और उर्ध्वगमन का प्रकाश देना, इसी केन्द्र तत्व में संभव है। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुत: सद्गुरु है। इसी का नमन, पूजन और परिपोषण करना गुरु भक्ति का यथार्थ स्वरूप है। गुरुदीक्षा एक व्रत धारणा का नाम है कि ‘हम अंतरात्मा का अनुसरण करेंगे।’ ऐसा निश्चय करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिंतन औरर् कत्तव्य से विरत नहीं हो सकता।
अंत:करण ही गुरु
शास्त्रकारों ने सद्गुरु का वंदन करते हुए उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपमा दी है। यह उपमा किसी व्यक्ति विशेष के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकती भले ही वह कितना ही सुयोग्य क्यों न हो? गुरु को परब्रह्म कहा गया है। यह वर्णन विशुध्द रूप से परिष्कृत अंत:करण के लिए किया गया है। गुरु को गोविंद से बढ़ कर मानने की मान्यता अंतरात्मा को परमात्मा का उपलब्ध आधार समझने के लिए प्रतिष्ठापित की गई है। अस्तु, सद्गुरु की उपमा ऐसी परिष्कृत और प्रखर अंतरात्मा को ही दी गई है, जो अवांछनीय का डटकर प्रतिरोध खड़ा कर सके और अकर्म में उद्यत उन्मुक्त हाथी जैसे दुस्साहस को जंजीरों में जकड़ कर उल्टा टांग सके।
व्यक्ति विशेष को गुरु मानने की भी आवश्यकता पड़ती है, पर उसका कार्य सद्गुरु की पहचान करा देना, उसका भक्त उपासक बना देना मात्र है। सद्गुरु हमें पार उतारते हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए शरीरधारी गुरु भी अपने ढंग की आरंभिक किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करते हैं। इसलिए पूजन-वंदन उनका भी किया जाता है। अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रगति करने के लए प्रत्यक्ष गुरु का सहयोग नितांत आवश्यक है। राम और हनुमान का युग्म ही लंका विजय में समर्थ हुआ था। महाभारत की सफलता श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन से संभव हुई थी। कान में मंत्र फूंक देना या कर्मकांड का विधिविधान बता देने मात्र से काम नहीं चलता। गुरु को अपनी शक्ति का एक अंश भी देना होता है। इस अनुदान के बिना आत्मिक प्रगति के पथ पर बहुत दूर तक नहीं चला जा सकता। गुरु की आवशयकता इसी प्रयोजन को पूरा करने के लिए होती है। जैसे माता के उदर में रखे बिना, अपना मांस-रक्त दिए बिना, दूध पिलाए बिना भ्रूण की जीवन प्रक्रिया गतिशील नहीं हो सकती।
अध्यात्म मार्ग की प्रगति प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। गुरु अपने शिष्य को अपने तप की पूंजी प्रदान करता है। तदुपरांत शिष्य भी उसे अपने लिए ही दबाकर नहीं बैठ जाता वरन् उस परम्परा को अग्रगामी रखते हुए अपने अनुयायियों की सहायता करता है। रामकृष्ण परमहंस बनने के लिए जन्म-जन्मातरों को साधना अभीष्ट है, पर विवेकानंद बताना सरल है। समर्थ गुरु रामदास बनने के लिए तलवार की धार पर चलने जैसी साधना करने का साहस सामान्य व्यक्तियों के पास नहीं होता, परन्तु शिवाजी के रूप में एक नगण्य से व्यक्तित्व वाले बालक का विकसित हो जाना सरल है।
सही मार्गदर्शक की आवश्यकता
पारसमणि बनना कठिन है पर लोहे का उसे छूकर सोना बन जाना सरल है। बुध्द जैसी प्रतिभाएं कभी-कभी ईश्वरीय इच्छानुसार अवतरित होती हैं, पर उनकी छाया में अशोक, आनंद, अंगुलिमाल, आम्रपाली आदि असंख्य व्यक्ति लघुता की परिधि लांघते हुए महत्ता का वरण कर सकते हैं।
इस मार्ग पर चलने के इच्छुक साधक को अनुभवी और सही मार्गदर्शक की आवश्यकता अनिवार्य रूप से जुटानी पड़ती है। साथ में यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कोई विदूषक गुरु पद का प्रहसन रचे न बैठा हो और अपने साथ-साथ अनुगमन कर्ता को भी न डुबा रहा हो। जिन्हें समर्थ आत्मबल सम्पन्न और अनुभवी गुरु का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिल गया, तो समझना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिए एक सशक्त अवलंबन प्राप्त हो गया। ऐसे में गुरु न केवल शिष्य का साधनात्मक मार्गदर्शन करते हैं वरन् अपनी शक्ति का एक अंश देकर साधक को आत्मबल से अनुग्रहित करते हैं। साधना ग्रंथों के अलंकारिक वर्णनों में इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया को शक्तिपात के नाम से संबोधित किया गया है।
स्वामी जी ने उनसे पूछा- तेरे में जिज्ञासाएं नहीं उठतीं? उसने कहा- उठती हैं, पर आपके जाज्ज्वल्यमान रूप के सामने वे विगलित हो जाती हैं। मेरी जिज्ञासाओं को मेरे अंत:करण में समाधान मिल जाता है। स्पष्ट है कि मानव जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु गुरुत्व कितना जरूरी है। शास्त्रों में उल्लेख है कि यदि कोई गुरु न मिले, तो आत्मा को गुरु मानकर उसके माध्यम से अपनी समीक्षा करनी चाहिए व मार्गदर्शन लेना चाहिए।
Satyajeet

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय