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Showing posts from September, 2016

हम लिखते तो कागज उधड़ जाते , तृषित

हम लिखते तो कागज उधड़ जाते हमने तो फूलों को भी खूब कुचला है यह कोई और है जो झीने से कागज़  संग स्याही बन थिरकता है उसमें से निकलती ख़ुशबूं ही सुख कर अल्फाज़ हो जाती होगी अल्फ़ाज़ों क...

बहुतों ने कहा तुम रस हो , तृषित

बहुतों ने कहा तुम रस हो रसिया हो , रसिक हो , रसराज हो । फिर और करीब गया तुम्हारा अपना कोई तो देखा तुम प्यासे हो तुम बावरे हो तुम साँवरे हो तुम घायल हो तुम पूरे हो पर हेतु ! पर ख़ुद म...

मैं तो रोज लिखूँ , तृषित

मैं तो रोज लिखूँ लिखती रहूँ कलम रह जाऊँ गर तुम जो पढ़ो तुम्हारी निगाह तो अपने मेहमानों में अटकी है नहीँ , नही दीवानों में अटकी है जिसे तुम देखते हो वो दीवाना होगा ही तुम्हारा ...

बेकार सूखा घड़ा सा था कही पड़ा , तृषित

बेकार सूखा घड़ा सा था कही पड़ा अब तो घड़ा भी नही ठीकरी ही कहने लगे थे लोग जल शीतल नहीँ होता था मुझमें न जाने क्यों दाह थी विचित्र उतर गया परिन्डो से मुझे पात्र होना न आया शीतल जल क...

प्रेम ना सुन्यो जाय , तृषित

*प्रेम ना सुन्यो जाय* कहि न जाए मुख सौं कछू, स्याम प्रेम की बात । नभ-जल-थल-चर-अचर सब, स्यामहि स्याम लखात । जिसे लग जाता है यह महारोग , यह श्रीप्रियालाल का प्रीत रोग उसके लिये सारी श...

ब्रज रसिक गद्य भाव

ब्रज रसिकन भाव "पदरज" तृषित प्यास बुझाइए -- *‘गोपिनु कौ प्रेम परबत समान है, औरनि कौ प्रेम कूप वापी, तड़ाग, सरिता तुल्य है। अरू इनके रूप कौ उनमान जनाऊं। सर्वोपरि स्त्रीन में महाल...