तिजोरी में सहजे अधूरे अल्फाज़ , तृषित

दिल हमारा है तलब भरा
यहाँ-वहाँ ख़्वाब ही ख़्वाब में भरा...

कामनाओं से छूटने के लिये अनन्त उपाय सुने होंगे ।

पुराना एक भाव , ज़रा हक़ीक़त भरा है , आराम से डुबीएगा

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बड़ी शिद्दत से वो कुछ छुपाकर रखते , हम लाख पूछते तब भी ना कहते कि क्या वो हम से छिपाते ।

हम सोचते थे हम उनकी मुहब्बत है , फिर हमसे वो कुछ छिपा जाएं... दर्द देती थी उनकी यह तलब

फिर क्या कोई और भी उनकी वफाओं का शिकार है ...कौनसी चीज़ है यह , जिससे हमसे ज़्यादा प्यार है

अच्छा नही लगता था हमें , हमसे अजीज़ वो तिजोरी थी उन्हें...

और घण्टों हमेँ बाहर कर वो अपनी तिज़ोरी खोलकर कुछ करते रहते...

हम बाहर से कभी बातें करते , कभी रूठ जाया करते... और भीतर से ही मना लेने के जतन किया करते

अक्सर भीतर से अंताक्षरी वो खेलते और हारते ही जाते , शायद जीतना उनकी इंतहा ना हो

आज जबरन देख ही लिया उनकी अजीज तिजोरी की चाबी चुरा कर हमने...

उफ़ , जो देखा ...फ़टी निगाहोँ से सुबकती रातें फिर जवाँ हो गई

हमने जो जहाँ छोड़ा अधूरा अल्फाज़ था वहीँ उनकी इबादत निकला

सारी-सारी रात कभी कागज़ों पर कुछ लकीरें , कुछ अधूरे अल्फ़ाज़ लिख कर हम फेंकते रहें...

हर कागज़ सलीके से सिमटा हुआ था उनकी इस दिलकश तिजोरी में

हमने तो अधूरे पन की आँधियों से उसे मौस-मौस कर फेंका था ...अधूरे ख़्वाबों की तरह

आज उन्हें देख कर लगा जैसे रोज कोई उन्हें सहलाता हो , सम्भालता हो , समेटता हो , छुता हो , और शायद ... चूमता हो ।

ना जाने उन्हें और काम भी था या नहीँ ,

हमारे हर अधूरे ख़्वाब - अधूरे अल्फाज़ समेटने के लिये क्या वो आँधी बन सारी रात उन कागजों को ढूंढते रहते थे

उफ़ यें दिल भी क्यों इतनी तलब रखता है और हर तलब को अधूरा फेंकता है...

मेरे महबूब हर अधूरी तलब के पीछे पीछे फिरते है , मेरी ही तलब समेटते ...वो मुझसे मिलकर भी ...कहाँ मिलते है

हम तो भूल ही गए थे उन रातों के उस अधूरेपन की सलवटों को , किसी खेल की तरह... 

हमारे कल के अधूरे ख़्वाबों को आज हमने किसी की तिज़ोरी में संज़ीदगी से सजाये देखा है , किसी ज़िन्दगी की तरह...

अब तो दिल करता है कोई ख़्वाब और छु ना लूँ , कोई आहट सुन ना लूँ , आरजूओं की साँस ना लूँ...
किसी साये में निग़ाहों की तस्वीर ना बुनूँ ...

मेरा हमदम बड़ा खामोश है सँग सँग मेरे , शायद मेरे अधूरे ख्वाबों को सुनकर कही फिर न निकल जाएँ उन्हें लौटाने को... तृषित

अधूरी ज़िन्दगियों की मेरी इंतहा से कहीं , उसकी मोहब्बत की कसक भरी दास्ताँ रूहानी हक़ीक़त सी , सदाओं सी मुझे छूने को मचलती क्यों थी ...

उसे मेरी हर अधूरी खता से पूरी सी मोहब्बत क्यों थी --- तृषित

जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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