अनुभवी ही कहे तो असर होता है , तृषित
ग्राम-सिंह भुंस्यौ बिपिन, देखि सिंह कौ रूप ।
सुन-सुनि भूंसै गलिन में, सबै स्वान बेकूप ।
सुनी-सुनी सब कोउ कहै, देखी कहै न कोइ ।
देखी कह, भगवतरसिक ताके पग पिय धोइ ।
(किसी गाँव के पास एक जंगल था । एक बार गाँव का कोई कुत्ता जंगल की ओर निकल गया । वहाँ उसे एक शेर दिखाई दिया । ) जंगल में सिंह के रूप को देखकर वह कुत्ता भौंकने लगा । उसका भौंकना सुनकर गाँव के शेष बेवकूफ कुत्ते अकारण ही भौंकने लगे । भगवतरसिक जु कहते है कि इसी प्रकार संसार के व्यक्ति अनुभवी महापुरुषों की कही-सुनी बातों को बिना अनुभव किये ही कहते रहते है । (ऐसे व्यक्तियों का कथन मिथ्या होने से व्यर्थ है।) हम तो उनके पैर धोकर पीयें, जो अपनी आँखों से देखकर स्वयं अनुभव करके कुछ कहे ।
सच ही है न आज पथिक या साधक कम और गुरु नित्य बढ़ते जा रहे है । प्यासे कम है , जल की बोतल की दुकानें अधिक है । निः स्वार्थ प्याऊ के तो जमाने गए अब तो जो है स्वार्थ हेतु है । सवेरे नेट ओपन करने पर अब भय रहता है , क्योंकि इधर से उधर करने वाले इतने मेसेज कर देते है कि धन्यवाद इस यन्त्र को जो सह लेता है । हमें अनुभवगम्य होना चाहिये , दर्शन की व्याकुलता होनी चाहिये , प्रदर्शन की होड़ नहीं ।
वर्तमान नव-नव उपदेशक हम शायद जानते नहीं कि अनुभव हीन उपदेश का कोई अर्थ नहीँ और जो बात केवल विचार या बाहर की सुन कह दी जावें जीवन से न कही जावें वह कभी न कभी उपदेश की सिद्धि के लिये जीवन में घट भी सकती है । वास्तव में जिसने रस पी लिया वह बस भीतर से ही अनुकम्पा कर विचार कर लें , कहे भी नही तो भी सामने बैठे पिपासु में पात्रता अनुरूप वह रसिक-सौरभ में घुला रस उतर जाएगा । और किसी ने नहीं पिया , न कोई अनुभव हुआ वह लाखों को सम्बोधन करेगा और सब जैसे आये वैसे लौट जाएंगे । धार्मिक आयोजनों में भीड़ में धक्के - उतपात आदि भी होते है , वह जैसे आएं वैसे लौट जाते है और जिसे पीना है उसे भीड़ से छुटना ही होगा । भीतर का भीतर से सम्बन्ध होने पर रसिक सन्त सहज कृपा करते है । वह तो चाहते ही है कोई सच्चा पथिक हो जो भगवत सेवा निष्ठा को श्रद्धा से करता रहें ।
हम सब देखादेखी में अगर कुछ करते है तो उसका स्वाद नही आने वाला । हमें प्यास ही नहीँ तो क्या शर्बत और क्या गंगाजल । हाँ हम देखा देखी में पी सकते है पर प्यास के आभाव में वह रसमयता कैसे देगा । कोई है जो वृन्दावन या श्री बिहारी जु आदि के लिये व्याकुल हो हर पल विरह में जल कर कुंदन हो नित्य उसी रस में समावेश कर जाता है । और कोई देखा देखी कर पहुँच तो जाता है पर प्यास के अभाव में वह रस नहीँ संकट ही लेकर लौटता है । उसे भीड़ - धक्के - गर्मी - खाने-पीने और रहने का आभाव , सड़कों पर गन्दगी आदि ही स्मरण रहता है । अतः अनुभवी की सुननी है और अनुभव की कहनी है तथा प्यासा रहना है वरन् शीतल से शीतल और मधुर से मधुर वस्तु भी तृप्ति नही कर सकती । एक और बात आज के समय जगत इतना भोगी हो गया कि भगवान का भी भोग चाहता है । प्यासे के पास उचित समय पर तृप्ति स्वतः उतरती है , और वह तृप्ति और प्यास गहरी करती ही है । सत्यजीत "तृषित" ।।
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