भगवत् कृपा से ही भगवत् प्यास

भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों को ब्रह्मानन्द तक के सुख आनन्द से उद्धार कर लेते हैं । इस समय गहन पिपासु जीव विरहभाव आत्यंतिक तीव्रता पाकर तीव्र अनल (अग्नि) की भाँति दग्ध करता है । यह क्लेश देह आदि के नाश में समर्थ है । भगवत् विरह स्वर्ण से कुंदन होने की वृत्ति है । इसके आगे समस्त उपाय उतनी शुद्धता नहीं करते । दूसरे के द्वारा दी अग्नि की उतनी भीतरी पहुँच नहीँ , भगवत् विरही तो सजीव भस्मीभूत ही  हो जाता है ।
इस तीव्र विरह की की अवस्था में भगवान भक्त के अपने अधिकार के अनुसार उसे अपने भाव के उपयोगी परमानन्द-लीला का अनुभव करा के विरह का उपशम करा देते है ।

जीव ब्रह्म के साथ ऐक्य लाभ कर लेने पर भी भगवान की शक्ति द्वारा पृथक् किया जा सकता है ।
यह पृथकता वास्तविक पृथक् करना नहीँ ,लीला रस के आस्वादन के लिये अपने अपने स्वभाव का विकास भर है ।
प्रत्येक जीव की आकृति , प्रकृति , भाव , गुण , क्रिया पृथक्-पृथक् हैं । यें सभी नित्य और अचिन्त्य है , प्रत्येक जीव का स्वभाव भी ठीक वैसा ही है । इन दोनों स्वभावों के खेल से ही अनन्त भगवत्-लीला में अपरिसीम माधुर्य है ।
भगवत् अनुग्रह ही समस्त व्याकुलताओं का निवारण कर सकता है ।
भगवत् प्रीत , भगवत् व्याकुलता , भगवान की उत्कंठा और राग मयी भक्ति की प्राप्ति भगवान की अनुकम्पा - अनुग्रह या कृपा शक्ति से ही सम्भव है ।
भगवान के दिव्य विशेष अनुग्रह से केवल भगवत्-स्वरूप की प्राप्ति होती है अर्थात् लीला भाव में प्रवेश ।
पुष्टि भक्ति 4 प्रकार की होती है उसमें चौथी है शुद्ध पुष्टि । यहाँ अर्थ भगवान के अनुग्रह की पूर्णतम पुष्टता से है । जहाँ भीतर सर्व अणु परमाणु रूप अनुग्रह ही उतर जावें और गहनतम भगवत् प्रेम हो जावें समस्त बाधा - दोष - सीमाएं पिघल जावें । शुद्ध पुष्टि ऐसी अवस्था है जिसे किसी साधना से प्राप्त नही किया जा सकता । चेष्टाओं से जो प्राप्त है वह पूर्णतम भगवत् अनुग्रह नहीँ है । भगवत् कृपा से का वास्तविक स्वरूप तो एकमात्र अनन्त भगवत्प्रीति ही प्रदायक है । भौतिक जीवन के साधन को भगवत्कृपा कहने वाले हम किसी खिलौने को ही सच्चा वाहन समझते है ।
हमने अभी कही पढ़ा कि किन्हीं ने कहा भगवत् व्याकुलता या उत्कंठा पूर्व के पुण्यों का परिणाम है ।
वास्तव में विशुद्ध भीतर की भगवत् व्याकुलता या उत्कंठा अथवा लोलुप्ता या प्यास कुछ भी कहिये यह साधन की वस्तु है ही नहीं भगवत् व्याकुलता का कोई साधन नही है केवल भगवत्कृपा ही इसका हेतु है । जीव को वास्तविक प्यास का अनुमान होना भी पुण्यों के बस की बात नहीँ यह अनन्त पुण्यों के परिणाम के संग विशेषतः भगवत् कृपा है । जो जितना भगवत्कृपा का आदर को सेवन करता है उसका उतना ही पूर्णतः विकास हो सकता है । और सर्व रूप वहाँ साधन भगवत्कृपा है ।
जिस शुद्धा भक्ति और दिव्य रस की व्याकुलता का हेतु एकमात्र भगवत्कृपा या अनुग्रहता है , वहाँ पूर्ण भक्ति- प्रेम और रस की प्राप्ति का द्वितीय कोई साधन कैसे हो सकता है ।
जो प्रीत आग ही कृपा से लगी हो उसपर पकाया रस और प्राप्त पुष्टि का हेतु एक मात्र हेतु भगवत् अनुग्रहता है । भगवत् कृपा का महाफल भगवत्प्रीत की व्याकुलता है यह साधन आश्रय से नहीँ अनन्त पुण्यों के भोग त्याग के किन्हीं भावनाओं से प्रसन्न भगवान की विशेष प्रेम दृष्टि का परिणाम है ।
सत्यजीत तृषित ।
जयजय श्यामाश्याम ।

वो रस कहाँ से लाऊँ जो सूर्य को भीगो देवे

वो अग्नि कहाँ से लाऊँ जो जल को अनल बना देवें

मिट्टी बन खूब उडी पर सूरज न हाथ आया था

जब उड़ती उड़ती कही थक गई तब चिकनाई कोई लाया था

फिर आया कुमार कोई बना दिया दीपक मुझे

कभी मुझमें ज्योति होगी वह उस सूर्य से ही तब मुझमें होगी

मिट्टी नहीँ घुली थी सूरज में , उसमें घुलने को उसकी ही ज्योति होगी

वेद मन्त्र तब करेगा आवाहन मेरी छोटी ज्योति में सूर्य चन्द्र का

तब होगी अनुकम्पा मुझमें आकर चुरा लें जाने की

जिसे पाना हो उसे तुममें उतना उतरना होगा जितना तुम मचले थे कभी ...
सत्यजीत तृषित ।

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