प्रेम ना सुन्यो जाय , तृषित

*प्रेम ना सुन्यो जाय*

कहि न जाए मुख सौं कछू, स्याम प्रेम की बात ।
नभ-जल-थल-चर-अचर सब, स्यामहि स्याम लखात ।

जिसे लग जाता है यह महारोग , यह श्रीप्रियालाल का प्रीत रोग उसके लिये सारी शेष-सृष्टि असार है , और सर्वत्र स्यामास्याम दर्शन से , सर्वत्र ही सार भी प्रेमी को दृश्य है ।
प्रेमी की कौन सुन सकता है , और क्या कहे वह ? किससे कहे ? नही कह सकता , जो आह्लाद भीतर उमड़ता वह बाहर आ ही नही पाता , कैसे भी नहीं ? कभी भी नहीं ?
क्योंकि प्रेम अप्राकृत सरसरस है जिसका स्पर्श प्राकृत जगत कर नहीं सकता ।  संसार के कल्याण लिये भगवत्-प्रेमी अमृतबिन्दु है । इस क्षणभंगुर संसार से जो रस-सार नित्यविहार में डूब गया वह ही जगत को भी वास्तविक नित्य रस को चखा सकता है परन्तु संसार के लिये जो रस पा गया वह सदा ही आलोचना-घृणा का पात्र रहा । जगत का यह उपहास प्रेमी संग कोई नया व्यवहार नहीं है यह तो बाह्य सुरक्षण ही भीतर की प्रेम बेल का ।
प्रेमी संसार के लिये सर्वथा बेकार है , क्योंकि सँसार वहाँ सार पाता जहाँ अहंकार की सत्ता हो वस्तुतः बाह्य दृष्टि से जगत अन्य के अहंकार को पचा नहीं पाता परन्तु इस अहंकार को भारी चोट जब लगती है , जब सन्मुख निष्काम निर्मल प्रेमी हो ...अहंकारी अन्य अहंकारी के सँग प्रतिस्पर्धा रख सकता है , परन्तु प्रेमी अंतर में कोई स्पर्धा अन्य न होती है और वहाँ प्रेमास्पद की सत्ता से शेष सत्ता ही नहीं रहती अतः जगत अपने अहं को मृत नहीं देख पाता प्रेमी सन्मुख क्योंकि प्रेमी के नयनों में ना कोई कामना है , और ना कोई सत्ता विशेष शेष रही है । ...और संसार प्रेम रोगी का उपचार भी विषयादि से करना चाहता है , क्योंकि अपने पारलौकिक दर्शन सम्भव नहीं रहता तो इह-लौकिक भोग-विषय सत्ता बनी रहें अतः जगत पुनः-पुनः प्रयास कर प्रेमी के अनवरत रसधारा को भँग करने को लालायित रहता है ।
इधर प्रेमी के नेत्रों के सामने नित्य गहन - अतिगहन मधुरामृतरस ही छाया हुआ , सर्वमेव एकमात्र श्रीप्रियालाल का श्रृंगार ही जैसे बरसता हो ...प्रेमी सभी अन्य वस्तुएं नहीँ देख रहा , वह तो केवल प्रीतिप्रेम के श्रृंगार उन्माद में डूबा है बस , क्षणभंगुर दृश्य का वहाँ अस्तित्व ही नहीं ...अनवरत उत्सवोतर महाउत्सव प्रकट हो रहे ।
इधर बाहर ...घर-परिवार हर रूप वहीँ । किसी प्रेमी को परिवारजन बाँवरा मान हल्का-फुल्का ताना देते है , तो प्रेमी अंधेरे कमरे में अकेले रहते ।  कोई अन्य व्यक्ति के दृश्य होने पर रोने लगते (केवल प्रेमास्पद चाहिए इन प्यासे नयनों को) , किसी प्रेमी को संसार दैहिक - मानसिक  आघात देता है ... तो कोई अपने लौकिक जगत के लिये पागल पशुवत् जंजीरों से भी बंधे है । ...कोई डॉक्टर्स के लिए कौतूहल भरा अनुसंधान बन औषधालय की शैया पर जबरन सुला दिए गए है ।
ऐसे अनेक संग मिलें जिनका भगवत् सम्बन्ध तोड़ने के साधन संसार कर रहा है आज के समय भी भीतर चटक भरे भगवत्प्रेमी है । ...जैसे मीरा बाईं साँ , महाप्रभु की उन्मादित सी परम् स्थितियों की कोई अश्रु बूँद वायु रूप छु गई हो ऐसे । भक्त कथा तो होती है परन्तु आज भी प्रेमी सन्मुख जहर के प्याले भरे संसार खड़ा है । आज भी नववधू पिटती है भगवतनाम और भगवत् रस में डूबे होने पर । एक ओर जहाँ भक्ति-फैशन बड़े शहरों में हो रहा ...वहाँ अभिनय वास्तविक प्रीत का रहता है , परन्तु हृदय उसी आधार हेतु सहज नहीँ होता , प्रेम और भक्ति देह से परे कोई अत्यंत दुर्लभ वह रश्मि है जिसका क्षणिक स्पर्श स्वयं ब्रह्मविद्या तलाशना चाहती है।  कितने उदाहरण दे प्रेमी के बंधनों की कथा सबको रटी हुई है और हम देखते है ऐसी प्रेमी ...श्यामा चरण-रज पिपासु जो बरसाना जाती दर्शन को और लौट कर खूब मार खाती ...असहज प्रपञ्च में पीड़ा है सहज सच्ची भक्तिभावना । नमन ऐसे सभी व्याकुल प्रेमियों को , यह व्याकुलता हरि की सर्वोच्च कृपा है ।  ...ऐश्वर्य में सजी नव-वधु भीतर केवल श्रीप्रिया पद कोर का स्पर्श ...सब छुट जाने से बाहरी अभिनय नहीँ निभा पा रही , अतः संसार अचम्भित है कि उनकी ओर से कमी क्या है सबकुछ तो जो वह जानते दे ही रहे है...???  
यहाँ बता देना उचित होगा कि प्रेम वर्षा कृपा करें तो केवल प्रेमी का ही स्पर्श प्रकट होता है , बाह्य-अपरिचित बहुत से प्रेमी , प्रेमास्पद की अभिन्नता से अप्राकृत डोर से बंधे होते है ।  लौकिक सम्बन्ध भले न हो परन्तु पारलौकिक रूप से सब उन्ही श्यामाश्याम की वस्तु आदि ही है ,   कुछ कहते है भीतर की और कुछ कभी भी नही कहते परन्तु बहता रस जब अभिन्न हो तब घाट दो हो सकते है रसधारा में वही रस है न... । घाट की अपनी वैचित्री हो सकती है गंगा एक ही है न । यह लेख 2016 का है, तब से अब तक के बहुत से प्रेमियों का दर्शन और उनकी प्रियता का दर्शन चित्त पर कौलाहल कर रहा है जैसे अपने प्रेमियों को पुनः-पुनः वह प्रकट कर सत्य में ठान चुके हो इसी बार प्रेमोन्मत्त करने हेतु । जैसे कह रहे हो कि केवल प्रेम भरा है इस निकुंज-हवेली के राजभोग में ...जैसे यह मलिन जीव जगतोन्मुखी होने का अवसर बटोरता है पुनः वह अपना छुआ हुआ उन्मादित प्रेम फूल देकर कहते हो... इसकी पूजन करो । 
भक्ति करुणाधारा (कल्लोलिनीसुधा) है और भक्त-प्रेमी है घाट , घाट का भी विशेष महत्व है उसकी उतेजना जितनी रही , पकड़ जितनी रही उतना रस तत्व वहाँ प्रकट है अतः घाट-घाट पर एक ही धारा में कुछ स्वभाविक वैचित्री है भी परन्तु मूलतः करुणा धारा तो एक ही है , रसवर्धन के लिये घाट-घाट में भिन्न रस शक्ति है । सभी घाटों के गोते में एक नयापन है । जयजय प्रेम के यह प्रेमिल घाट ।
...आप सोचेंगे सच्चे प्रेमी तो बोल नहीँ पाते न , फिर ... प्रेमी आप बीती भले न कहे परन्तु भगवत्कृपा सब कहती है , सच्ची बात यह है प्रेमी कोयल को बासन्ती छुअन चाहिए फिर वह सब कुक-कुक कर सुनाता है । पक्षी मूक नहीं है , जीव की श्रवण शक्ति गोण (लघु) है , सुनना चाहता नहीं प्रेमी को कोई वरन किसी फूल से पूछियेगा किसने की सारी रात उससे कोमल कोमल रसभरी बातें ।  प्रेमी अपने ना भी कह्वे तो प्रेम तो उछल उछल सब कहता ही है न ।
हमारा एक पिछला युगल-उत्सव(2016) आयोजन युगल के ही सानिध्य में रहा , सञ्चय न हो पा रहा जब चित् की न जाने किस वेदना को युगल ने कही कह दिया । एक युगल प्रेममयी सरिता को श्यामसुंदर का आदेश ही हुआ वह सम्पन्न होकर भी धन पर स्वत्व न होने से सेवा हेतु व्याकुल ही थी और वह अपना कोई आभूषण बेच आई और राशि तब भेजी । हमने नहीँ कहा , श्यामसुन्दर ने कहा । एक और ऐसी ही रससँगिनी-प्यासी अपने ससुराल में न कह पाने से पीहर में कहकर सेवा का प्रयास चाहती है , जिनसे अपने लिए ना मांग सके उनके हेतु माँगती है । एक भावुक अति लघुउत्सव में सम्मिलित होने हेतु अपनी बीमा पॉलिसी तुड़वा दिए , यह अभाव की शक्ति है जबकि धनी के बहाने होते है उत्सव में ना आने के कि कार का ऐसी सही नहीं था । जहाँ बहुतों तक हमारी लिखित-मौखिक बात जाती वहाँ अपेक्षा फिर भी रही हो परन्तु श्रीयुगल ने रक्षा की अपने प्रेम की उसे समोचित विपरीत लीला द्वारा गोपण कर लिया ।  श्रीजी ने कृपा करी बिना बाह्य संसाधनों के हमारी मधुशाला जुटा दी ,अपने भृमर की मधुपान पीड़ा प्रेमअलि जानेगी ही । बाह्य अभाव से हमारी अंतर की लालसा स्पष्ट रह सकी ।
प्रथम उत्सव में एक आदरणीय भावुक प्रेमी जी आये बहुत ही दूर से ।  यह उत्सव केवल हिय का उत्सव रहता है । बाद में पता चला , उनके नेत्र-दृष्टि में तब कुछ हानि थी , ठीक से भगवतदर्शन भी न हुये उन्हें परन्तु तब वह नियमित दर्शन में सँग रहे (उन्हें दिख ही नहीं रहे श्रीगोविन्द यह बाद में ज्ञात हुआ) ,तब उनकी अभिव्यक्ति मौन रही । और फिर भी खड़े रहे , 68 वर्ष की आयु में ऐसी सेवा भावना से जैसे 18 वर्ष के हो , हर सेवा को प्रथम तत्पर । मर्म को देखें तो हमारे जैसे तो वह अपने नयनों से प्रकट कर दे ।  ऐसी लगन , ऐसी प्यास मिल रही देखने को आज के जीवन में यह युगल कृपा ही तो है । इन प्रेमियों को कुछ नही दीखता केवल श्रीश्यामाश्याम ही दीखते है । ऐसे बहुत है , हम किन- किनकी कह्वे !
आवरण-भँग लीला का आदर कर कुछ पिपासु सात्विक रोक होने पर भी सँग रहते है क्योंकि भीतर के प्रेम की बाढ़ को रोकना अति कठिन है। एक अत्यंत प्रेमी बृज रसिक जीवन पर्यन्त परमोच्च उपासना में भीगे नित निहारते श्रीश्यामाश्याम की अठखेलियाँ , विगत समय ऐसे सँग कि हम उनके भीतर छिपे श्री बंकिम प्रभु की उत्सुकता को अनुभव कर ही द्रवित हो जाते है ...हमारे हेतु पूजनीय स्वरूप , भजनानन्दी स्वभाव उनका जिनके लिए हम कुछ भी कह गए तो उन्हें पीड़ा होगी । उनकी द्रविभूत झाँकी हमें मिलें इस हेतु हम उनके आधीन है ।
सबकी बात नही हो पाती कभी किसी की हो तो आहत न होकर हमें स्व भजन की गोपनता हेतु युगल से आभार ही व्यक्त करना चाहिये । और जो अभिव्यक्त हो वह तो युगल की वस्तु जान स्वयं को वैसा ही अनुभूत करें , जैसा वह चाहे । प्रेम की पठनी प्रेम ही कर सकता है । यहाँ हम कोई लौकिक गीत नहीं गा रहे सो सब समझ ना सकेंगे । जीवन की प्रौढ़ता पर उठती कौमार्य की सेवाओं में लालायित एक ऐसी ही दिव्य श्रीजी की सुगन्धा , धूप बत्ती की तरह स्वयं धूलित होकर ...हमारे स्वभाव को सुगन्धित कर देना चाहती है । और मेरी मंजुल माँ , बहुतायत ऐसा लगता जैसे अंधकार में वह गोद मे लिए थपकी देकर हृदय का ताप समेट रही हो ...वह वात्सलसुधामयी प्रेम की कृपा नित ही सजग । और अब मूल प्रधानपीठ हमारी वह मृदुल प्रफुल्लित नींव श्रीसरसतम जेजे जू चरणाश्रय जहाँ से भाव झारी चखी और हियपीठ पर आरूढ़ श्रीचरणाश्रय में सिमट भी जाना । जयजय श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास ।
क्षमा जी कहने का भाव था संसार से युगल का आशिक क्या कहे ? कितना कहे ? कैसे कहे ? नही होगा उसे तो बस कोई सेवा दे दो अपने प्यारे की । उनका आश्रय ही रह जावें बस ।
यह संसार न जाने क्यों भगवत् प्रेमी रूपी स्वर्ण को नही जानता और संसार के ही ताप पर ताप से वह कुंदन हो जाते है ...श्रीप्रेमास्पद प्रियालाल की किसी नूपुर में उज्ज्वलित ।

*दर-दिवार दरपन भए , जित देखौ तित तोहि ।*
*काँकर-पाथर ठीकरी, भये आरसी मोहि ।*

प्रेमियों की नज़र सबको लग जाये , सब वैसा देखने लगें तो रस-आनन्द-सुख की भागमभाग छुट जावें । वही नित् आँखों के सामने हर रूप रंग प्रकट हो । और उसके खेल में वस्तु का स्वरूप लोप और जो देखना , जो दिख रहा वही प्रकट हो जावें ।
भगवत् प्रेमी होना आसान नहीँ , क्योंकि कुछ छूटता जो नही , ना "मैं" , ना यह वैभव आदि । जो सब कुछ छोड़ श्रीप्रियाप्रियतम को ही हिय मे भरे हो वही चाहिये । एक हाथ में संसार एक हाथ भगवान की ओर बढ़ाता संसार , जब दोनों हाथों से केवल भगवान को ही पकड़े हुए प्रेमी को पाकर सदा व्याकुल होता है और अपनी असारता - अधूरेपन विकृत जीवनी से खीजकर भगवत्प्रेमी को कष्ट देता है , जिससे प्रेमी की साधना में तो तप प्रकट होता है और वह और निखरने लगता है , बिना तपे कोयले से स्वर्ण और वहाँ से भी कुंदन तक की यात्रा सहज नहीँ होती अतः प्रेमी को मौन इस भगवत्कृपा से प्राप्त तप का सदुपयोग करना चाहिये । और संसार को भगवत्प्रेमी का संग और सेवा करनी चाहिये ।
जिन पर युगल रीझ गए हो उनके दर्शन से ही उद्धार है , उनके संग में चमत्कार है , ऐसे कई भगवत्प्रेमी जन को मानसिक और पार्थिव देह के कष्ट संसार देकर उस प्रेमी को तो कुंदन बना रहा है परन्तु कुंदन संग भी स्वयं हृदय की कंगाली में राख ही क्यों हो रहा है , वेदना तो यह होती है । हिय पर झूलते प्रीतिप्रियतम सँग प्रकट उलसते प्रेमी के सँग में ही निधिवन की दुर्लभतम निधि है ।  प्रेमी की सत्यता-आकलन मत तलाशिये , प्रेमी के प्रेम में श्रद्धा होते ही प्रेम के झरने फुट पड़ते है । याद रखियेगा झरने पाषाणों से फुट ही बहते है ।  तृषित ।  जयजय श्यामाश्याम । प्रेमी के प्रेममय दर्शनों की बाट जोहिये नयनों से ।  श्रीवृन्दावन ।

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