श्री वृन्दावन दास बाबा जी

श्री वृंदावनदास बाबाजी

श्रीवृंदावनदास जी बरसाना में रहते । नित्यप्रति ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त हो श्री हरिनाम की मालाझोली हाथ में ले वृन्दावन जाते । प्रसिद्ध सातों देवालयों में ठाकुर के दर्शन कर तथा श्रीचरणतुलसी, श्रीरज और श्रीचरणामृत ग्रहणकर बरसाना लौट आते । सन्ध्या समय मधुकरी को जाते । निमन्त्रण में कभी कहीं न जाते ।

एक बार वृंदावन में गोविन्द-मन्दिर में विराट उत्सव हुआ । उस दिन जब वे गोविंद जी के दर्शन करने गये , तो वहाँ के वैष्णव बाबाजी गोविनदजी का प्रसाद पाने के लिये विशेष आग्रह करने लगे । उनके बहुत मना करने पर और हाथ-पैर जोड़ने पर भी उन्होंने एक न मानी । हारकर वैष्णव अपराध के भय से उन्हें प्रसाद ग्रहण करना पड़ा । दूसरे दिन शेषरात्रि में जब वें नित्य-कृत्य समापन कर हाथ में माला-झोली ले वृन्दावन जाने को प्रस्तुत हुये , तो यह देखकर उनकी चिंता और आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि उनके दाहिने हाथ का अँगूठा जड़ और निश्चल हो गया । व्यथा-वेदना, ज्वाला यन्त्रणा कुछ नहीँ हुई , पर माला नहीँ फेर सक रहा । ऐसा क्यों हो रहा था उनकी समझ में कुछ नही आया । वें भागे-भागे गोविंदकुंड के श्री मनोहरदास बाबाजी के पास गए और उनके चरणों में गिर रोदन करने लगे  । उन्होंने पूछा - क्यों रे ! तुझे क्या हुआ है ?

" बाबा मेरा सर्वनाश हो गया है। न जाने क्यों नाम जप करने में दाहिने हाथ का अँगूठा काम नहीँ करता । बताइये क्या करूँ ? वृन्दावनदास बाबा ने रोते-रोते कहा ।

कल कहाँ प्रसाद पाया था ? मनोहरदास बाबा ने फिर पूछा ।

वृंदावन में श्री गोविनदजी के मन्दिर में । उन्होंने उत्तर दिया ।

"अच्छा आज पूछकर आना कि कल किसके अर्थ से गोविंदजी का भोग लगाया गया था। "

वृन्दावनदास बाबा ने वृन्दावन जाकर गोविंदजी के पुजारी से पूछा , तो उन्होंने बताया कि भोग किसी वेश्या के द्रव्य से लगाया गया था । वृन्दावनदास ने मनोहरदास बाबा को जाकर जब यह बताया , तो वें बोलें -- " तेरे पेट को प्रकार अन्न कब सह्य हो सकता है ! जा तीन दिन तक नित्य श्रीकुण्ड में स्नान कर भीजे कपड़े से गिरिराज की परिक्रमा लगा । मार्ग में जो मिले उसके अतिरिक्त और कुछ न खाना । "

बाबा ने ऐसा ही किया । चौथे दिन उनके अँगूठे की जड़ता जाती रही ।

(अगर हमारा अर्थ अधर्म से उपार्जित है तो धन आदि भगवान को अर्पण भी ना हो
यह भगवत्कृपा से ही है कि अनर्थ का आभास हो जावें , वरन् हमें भजन में आंतरिक रूचि न होने से सब कुछ पच जाता ही है
यहाँ रसिक सन्त बरसाना से नित्य पैदल वृन्दावन जाते है भजन करते हुये , अँगूठा सब कर रहा है बस जप नही कर रहा और इसे ही उन्होंने सर्वनाश कहा है यह भजन से प्रेम के कारण है , हम तो ब्रज में पद धरते ही स्वयं सिद्ध हो जाते है
अगर भजन की व्याकुलता गहनतम हो तो हर तरह से उस हेतु ईश्वर हमारी भावना को साधेंगे ही , अन्य सभी व्याकुलताओं से भजन की व्याकुलता सर्वोत्तम है , हमारा भजन भी परिणाम विचार से होता है जबकि भगवत्-भजन स्वयं सभी साधनों का और भगवत् कृपा का महाफल है ) -- सत्यजीत तृषित

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