मैं तो रोज लिखूँ , तृषित
मैं तो रोज लिखूँ
लिखती रहूँ
कलम रह जाऊँ
गर तुम जो पढ़ो
तुम्हारी निगाह तो
अपने मेहमानों में अटकी है
नहीँ , नही दीवानों में अटकी है
जिसे तुम देखते हो
वो दीवाना होगा ही तुम्हारा
मेरा दिल तो कहता है
कुछ न लिखूँ
कुछ न कहूँ
न तुम मुझे सुनते हो
न लिखा कुछ पढ़ते हो
तुम्हारे अजीजों के
कदमों की कालीन रह जाऊँ
जो तुम तक जाये मुझपर होकर जाये
जो तुमसे मिलकर आये मुझपर हो कर जाये
और सहज लूँ , एक एक कण
तुम्हारे अपनों की पग धूलि को छिपा लूँ , बस मेरे दिल में ऐसा सुराख़ कर दो ,
राख नही सु-राख़ है यह ...
-- तृषित
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