तलब भी नही फिर भी मैं ज़िंदा हूँ

शब-ए-नूर ,तलब भी नही तेरी फिर भी मैं ज़िंदा हूँ

कही किसी रात सुकूँ के ख़्वाब में मर तो नहीँ गया हूँ

क्या साँसों की कतार कुछ और लम्बी होती जा रही है

तेरा हो जाने की हसरत किस फ़ितूर में खोती जा रही है

कल अज़ीब था वो जो तेरे गुल की महक से होश ले कर लौट गया

आज और अज़ीब कोहरा था मुझमें होकर तू मुझसे कहीं छुट गया

मुफ़्त में मिले हो यार तुम , काश थोड़ी तो ख़ाक छानी होती

एक सुकूँ के निवाले को तलाशती ज़िन्दगी काश तेरी नज़रों में डुबी होती

हसरतें जब-तब धूल की भी जगी मुझमें आसमां सी तलाश उठी

और ज़मी सी पकड़ होकर उल्फ़तोँ के बागानों में जीने को सजी

मैं हैराँ हूँ किसी और से नहीं , उससे , जिसे मौत भी ना आती थी तेरे बिना

अब इन बादलों की लाशों में बरसने की हसरतें नहीँ , सफेद है अब ज़िन्दगी तेरे बिना

तुझे चाहने की तलब में सूखते-मरते सुखा तालाब हो जाता तो बेहतर था तूने बरस कर भर दिया ना जाने क्या ? मेरी हक़ीक़त ...मेरी तलब कहीं खो गई

जो भी हुआ , अजीब था मुझमें मेरा अब यार नहीँ , हैं तो दीदार नहीँ

बातों का अब जवाब नहीँ , उसके बिना कोई पत्थर होगा , इस आईने में अब "मैं" तो नहीँ

सत्यजीत "तृषित"

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