बेकार सूखा घड़ा सा था कही पड़ा , तृषित

बेकार सूखा घड़ा सा था कही पड़ा

अब तो घड़ा भी नही ठीकरी ही कहने लगे थे लोग

जल शीतल नहीँ होता था मुझमें

न जाने क्यों दाह थी विचित्र

उतर गया परिन्डो से

मुझे पात्र होना न आया

शीतल जल की शीतलता को स्वयं ही जो मैंने स्वयं में समाया

यह करुणा जगत की जो उसने और पथ भृष्ट होने से बचाया

था प्यासा जन्मों का जल मिलते ही पहले शीतलता उसकी पी जाता

फिर मधुरता सोंख जाता

बचा जल भी मुझमें न जाने कहाँ उतर जाता 

सो बेकार की वस्तु था उतार दिया मुझे परिंडे से

पड़ा रहा कुछ दिन

कुछ मकड़ियों को मुझसे प्रेम हो आया

चूहों ने मुझे गोदाम बनाया

उनकी छुअन से जीवन फिर उतर आया

चूहों के पैरों की कीच से मुझे जल की सुगन्ध आती

मेरी माटी देह जल पीने को मचल जाती

सूखता गया , सख्त होता गया

एक रोज चूहों ने मुझे गोदाम में गिरा दिया

कुछ कीमती सामान टूट गया

मैं अब मिट्टी नही पत्थर था , ना टुटा
मालिक की नज़र गिरी

उठाया उसके हाथों में नमी थी

पर अब मुझे जल बिन जीना आ गया था

मैंने नमी को छु कर भी न छुआ

अब सख्त था , सूखा था , चिकना था

यह गुण नही दोष थे

मालिक मुझे ले गया

साफ़ किया

कुछ रंग किया

सजा दिया

फिर ना जाने कुछ मुझमें भर दिया

जल नही वह पर था कुछ

वह आता और प्रेम से छुता

फिर उसने मुझे छिपा दिया

चमकती हुई सी कुछ चीजें थी मुझमें
पर मेरी नही , मुझे आज भी कुछ याद था तो जल की शीतलता

उसने मुझे कही बन्द किया

अब नित्य आता है , घण्टी बजा कर मुझपर कुछ बुँदे गिरा देता है

आवाजें तो भीतर की वस्तुओं से भी आती है

मुझे तो अब उसके छींटे का सबब रहता है

वो मेरे हाथ जोड़ता है ,

मेरे हाथ होते तो पैर छुता और कहता ...

मैं हूँ एक प्यासा घड़ा

क्या मुझमें कभी जल भरोगें ?

प्यास में आग है जिसने मुझे ऐसा बना दिया अब टूटने में बरस लगेंगे या युग पता नही ...
--- तृषित

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