करुणा और प्रेम जीवन में उतर जाये , तृषित
सत्यजीत तृषित: करुणा और प्रेम जीवन में उतर जाये ...
परिधियाँ मिट जायें ...
सर्वत्र युगल दर्शन हो !
निजता न रहे ! बोध केवल युगल का हो ! देखना उन्हें हो ! सुनना उन्हें
हो ! छुना उन्हें हो ...
अन्त: चित् से सब हटे पर प्रियाप्रितम नही ! कोई कहे कि संसार भी है
समाज भी . परिवार भी ... हदे न तोडो ....
तब आप रो दो उनके आगे ...
आप भी तो हो ... मेरे तो सब आप हो ... संग रखो या दूर ...
साथ रखो या कहीं और ....
सब छुटे तुम न छुटो ... स्वप्न भी न हो ! मृत्यु हो जाये पर आप न जाओ ! कैसे आप बिन सांसे ली जा रही है जरा आप समझो तो सही !
एक एक क्षण का भय कि आप संग तो हो ना ... आप मेरे भीतर उतर गये हो . मुझे भी अपने भीतर उतार लो ...
हम एक हो गये है पर प्रेम रस के लिये दो भी तो है !
प्रतिक्षण का भय है ... आप हृदय में हो मेरे हो निकट हो ...
परन्तु मैं माया में धंसा हूं ... भय है भटक जाऊंगाँ ! किसी भी कदम आपसे दूर न हो जाऊं ...
सब हटा लो ... मुक्ति तक ! बस आप मेरे रहो .. ना जाओ ...
आपकी कृपा है तब तक नेह है ! आपकी माया से पुन: वही माया ...
आपके सिवाय मुझे कुछ न भाये !
आप बिना मुझे कुछ न दिखे !
नित की आस में नित को पाईए
नित स्वरूप निज चेतन जानिए
जड़ से पूजत रहे जड़ में ही छुटत रहे
चेतन को चेतना से तनिक मनाइये
प्रयास देह को गहरत कहाँ भयो
कछु और डुबकी गहरी कुई में लगाइये
अन्तस् से रिझाओगे अन्तस् में हर्षाओगे
भीतर ही रस मिलेगो भीतर ही दाह पाओगे ।
नित प्रभु ओऊ नित निज को जानोगे
नित देह कृपा से पाइके नित लीला
सेवा को रस नित चखते जाओगे ।।।
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