आसां नही प्रेम है न , तृषित

आसाँ नही प्रेम है न । हर पल की बेचैनी । ना जाने कैसे होते होंगे आपके प्रेमी मोहन । हँसना कब रोना कब हाय सब सिस्टम ही गडबड हो जाता है । क्या वो संग है ? क्या वो नाराज है ? आवाज क्यों नहीं आ रही ? हाय , चले गए न , संग नही न , बोलते क्यों नहीँ , शायद मै लायक ही नही उनके , हर बार उन्हें तकलीफ़ ही तो दी मैंने उन्हें । और मन फिर कही नही लगता , वो नहीं तो हल्का - कभी तेज बदन दर्द । कभी बुखार तेज़ ,  कभी ठंडा पडी देह । जैसे पोस्टमार्टम हो चूका हो ... देह की तो फिर भी सरल कहानी है , भीतर की , मन की क्या कही जावें । महफ़िलों में सब शमशाम सा ...पुरानी बातें याद उनकी । कभी भी आँखें बहने न लगे , चश्मा पहन लूँ , नहीं नहीँ बहना नही हर जगह ...मुझे सख्त होना चाहिये यू कही नही कह सकते न ।फिर हमारे प्रियतम का तो नाम भी लें तो कैसे ?
तुम नही तुम्हारे सही , तुम्हारे प्रेमी । तुम्हारी बाते , तुम्हारे नाम को फेरते हर तुम्हारे हर प्रेमी के क़दम ही चूम लूँ । क्या इनसे लिपट नहीँ सकते । क्या तुम्हें नही तो इन्हें पकड़-पकड़ कर रो नही सकते । इन्हें कहो न मुझे भी सुनना तुम्हारा नाम । ... कीर्तन , न बाबा , लालच न दो । मुझसे सहन होगा क्या ? ... ऐसा लगता जैसे घुल ही जाऊँ उन लम्हों में जब तुम्हारा नाम लें लें कर लोग झूमते हो , नाचते हो , हाय । नाम ...  मुझसे क्यों नही कहा जाता नाम । कीर्तन हो रहा मुझे रोना आ रहा बस अब नही सह सकते । या तो अभी कर दो पागल । आंसुओं को हर धमनी से बाहर करो । उछल-उछल प्राणांत हो । पर यही तो जीवन है नाम तुम्हारा , किसी भी तरह सुनना , पढ़ना  देखना  और भीतर और भीतर से सुनना । कभी निकले तो ऐसा लगें ... हाय ।
निहारने लगूँ तो तस्वीर देखते देखते आँख भूल जाती जब देखूँ कैसे ? कहाँ देखूँ ? कितना देखूँ ? हाय देखती रहूँ पर अब आँख से देखते बन क्यों नही रहा , यह धुंधली क्यों हो गई , बहने क्यों लगी ??
हाय निहारते निहारते निहारा ना जाये ... हाय ।
ऐसे घुल से जाते है वो अपनों से न उनके अपने जी पाते है न मर पाते है । जीने लगते है तो मरने लगते है । तड़प कर मरने को होते है तो आँखे कहती है एक पल और इंतज़ार कर लूँ । कही आ गए तो ...
आसां नही , समझदारों ने , होशियारों ने प्रेमियों को यूँ ही महारोगी नहीँ कहा ।
प्रेमी की तो प्रेमी ही जाने । हम क्या कहे, हम तो कही सुनी बात भर कर सकते है , सुना है प्रेमियों को कभी कभी किसी और को देखना नही भाता , फिर देखते देखते अपने प्रियतम को ही देखने लगते है ।
अकेले , खामोश ,खोये से , बेखबर जहाँ से , बैचैन सब कहने को नही सच में होने लगता है । जिस प्रेम रोगी को संसार जानता उनके प्रेमी तो संसार के है यह श्यामसुन्दर की आँखों से , किसी इशारे से जिन पर जादू हो जावें उनका एक ही इलाज़ है उन्हें ब्रज में छोड़ दो , छोड़ दो उन्हें वृन्दावन लें जाकर । रोने दो , करें जो करने दो बस ।
चलो आग लगे अंदर , दर्द हो , याद हो , तड़प हो , हर पल की कसक हो तब तक तो ठीक है चैन देकर बैचेनी भी ठीक , बेखुदी , यह सब ठीक । हद तो जब होती है जब बेचैनी ही खो जावें । तुम नहीं , यादें भी नहीँ , सब खोकर जो मिला वो यह कि बस तुम मेरे हो , वो खो जाये कही , यह प्रेम शास्त्र सीखा दे जब कि जीना है , जीवन ही महकता हुआ उन्हें देना है । जब तड़पना आसान होने लगे तब वह भी खो जावें आप अब जीने लगो .. पर उन्हें जीना आसान तो नही । प्रेमी जी लेते है , बाहर से अभिनय होता है भीतर का जीवन पूर्व ही समर्पित । खोया हुआ प्रेमी महकता है समझ आ जाता है उसका रोग , पर जिसका खोना भी खो जाता है जो जीवन बन लौट आता है वह समझ नही आता । जब वैसा ही जैसा था बस जीवन की धारा कही और जुडी होती है । आसां नही होता ...
खैर हम तो सुन सुन कर ही डर जाते है , कान्हा लगो तो यूँ लगना कि लग कर छूटो तो तुम ही हो बस  । हममें वो बात नहीं जो उनमेँ डूब कर कभी निकल भी जाये और जी कर भी दिखा दे , सो डरते है , है न । सुना है बड़ा हसीं समन्दर है जी करता है उतर ही जाये , सो खड़े रहते है उस रस के सागर के किनारे कि कोई पीछे से धक्का देकर हमें बहा दे । डूबने का मज़ा लेने को हमने तुझमें तैरना भी ना सीखा था । सत्यजीत तृषित

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