वास्तविक वैराग्य और रस पिपासु , तृषित
वास्तविक रस पिपासु , सेवा पिपासु भिन्न होते है । हमसे जगत का भोग सुख आदि नहीं छूटता , जो कि सच्चे सुख का परमाणु मात्र और छाया मात्र भी नही है । परन्तु वास्तविक ब्रज रसिक तो परमोच्च सुख का भी सहज त्याग कर ही देते है । वहाँ एक मात्र आश्रय है तो किशोरी जु के चरण । श्री कृष्ण भी एकांत में अगर ऐसे किशोरी पद सेवी रसिक जन का आलिंगन करना चाहे तो वह अनन्य रसिक जन सहज ही दूर रहते है । जगत के विषयोँ का तिरस्कार भी सहज हो सकता है परन्तु श्यामसुन्दर के दिव्य संग का त्याग भी किशोरी पद रज आतुर रसिक जन सहज कर देते है । ऐसा नहीं है कि वह श्यामसुन्दर के दिव्य सौंदर्य को देख नही रहे अथवा वह श्यामसुन्दर की प्रीति सौरभ को अनुभूत नहीँ कर रहे । वह श्यामसुन्दर के चाकर होने को तत्पर है तो भी किशोरी सेवा भावना से ही ।
त्याग की महिमा देखिये वह समस्त सीमाओं को तोड़ रसशेखर रसराज के दिव्य आकर्षण से खेंच लेने वाले सौंदर्य में भी बह नही रहा । यह वास्तविक सेवा है । सेवक को कोई लोभ - प्रलोभन है तो वह सेवा क्या ख़ाक करेगा , अपना ही मनोरथ साधेगा ।
ऐसे परम् रसिकों का चित् तो श्री किशोरी चरण सेवा अभिलाषा में प्यासा रहता है ।
महाप्रभु हरिवंश जु कहते है -
रहौ कोऊ काहू मनहिं दिये ।
मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा शपथ करौं तृण छिये ।
जे अवतार कदम्ब भजत हैं , धरि दृढ व्रत जु हिये ।
तेऊ उमगि तजत मर्य्यादा , वन विहार रस पिये ।
खीये रतन फिरत जे घर-घर कौन काज ऐसे जियनि जिये ।
जै श्रीहित हरिवंशी अनत सचु नाहीं बिन या रजहिं लिये ।
हमारी स्वामिनी श्रीराधारानी के श्यामसुन्दर प्रियतम हैं , इसलिये हम उनका आदर करती हैं , उनमें कोई राग नहीं , उनके स्पर्श की कोई कामना नहीँ । "
वें प्राणी ही धन्य-धन्य है जो संसार के सब आकर्षणों से विमुख होकर श्री कृष्ण के पादारविन्द के आलिंगन की कामना करते है । उच्चतम योगिन्द्र जन भी श्री श्यामसुन्दर के पादारविन्द का हृदय से बार-बार आलिंगन करते है । ऐसा आलिंगन बड़े सौभाग्य से मिलता है । सचमुख में बड़े सौभाग्य की बात है कि संसार से विमुख होकर के भगवान के मंगलमय पादारविन्द, करारविन्द, मुखारविन्द के सनस्पर्श की कामना उदित हो । इससे भी ऊँची बात , इससे भी वैराग्य करो । तब श्री किशोरी जु के नित्य निकुँज में प्रवेश होगा ।
तत्सुखसुखित्वं के अनुसरण अनुरूप भी श्यामसुन्दर का सुख तो श्री किशोरी जु है । श्री किशोरी जु का सुख श्यामसुंदर है । अतः दोनों के ही परस्पर सुख को जान उनकी इस आंतरिक प्रीति के रहस्य को समझ जो भाव में युगल मिलन रस की व्याकुलता से केवल युगल सेवा को ही सर्वोच्च भाव से आकांशित होते है वह ही वास्तविक सेवक है , सेवा ही जिनका सर्वोच्च धन है । अतः सेवातुर चरण रज पिपासु जन के अनुराग और वैराग्य की महिमा क्या कही जावें ... "तृषित" ।
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