युगल चिंतन में दोनों में किसी का न होना क्यों ?
रस पथिकों के संग कुछ वैचित्री रहती है यदा कदा । भाव या मानस सेवा में कभी श्यामसुंदर रहते है और श्यामा जु के दर्शन नही होते है । ऐसी स्थिति में श्यामाजु की व्याकुलता होने पर सुंदर दर्शन और सेवा होने लगती है । कभी श्यामा जु की सेवा दर्शन ही होते है श्यामसुन्दर नही दीखते । यह भी सेवा को गहरा करने हेतु है और श्यामा जु चरण में ही श्यामसुन्दर का प्रीत रस घुला है । श्यामसुन्दर की गहन रसमयता उन्हें श्यामा चरण का ही चकोर पाती है ऐसी अवस्था में वह श्यामा चरण उपासिका से पृथक नही रहते और श्यामसुंदर के ही हृदय की भाव सार वस्तु की वहाँ सेवा होती है । अतः यदा-कदा वह सेवा की गहनता में अनुभूत नही होते ऐसी स्थिति में व्याकुलता तो स्वभाविक ही है परन्तु यहां सेवा निष्ठा का परीक्षण भी है ।
श्यामसुन्दर से जिन्हें भी निर्मल प्रीति है उन साधकों को रस की विकास यात्रा में श्री जी चरण में कोई भी सेवा कर वह सेवा श्यामसुन्दर की ही जाननी चाहिये । वास्तविक प्रेम में आप अपने प्रेमास्पद के हृदय की अनुभूति को अवश्य जीने लगते है , ऐसा होने पर वह सेवा श्यामसुन्दर की ही सेवा और उनके ही द्वारा अनुभूत भी होती है अतः वहाँ श्यामसुन्दर का पृथक दर्शन इसलिये भी नही क्योंकि वह उस क्षण स्वयं सेवा हो चुके है ।
जैसा कि कर्ता-कर्म-क्रिया सब एक है और किसी क्षण किसी में विशेष अनुभूति होती है , तत्वतः सर्व रूप वहीँ है । वैसे ही रस आतुर वास्तविक सेवा क्षण में स्वयं सेवा रूप होते है । वस्तुतः श्री जी के अंग सेवा में प्रयुक्त प्रति वस्तु भी तो श्यामसुन्दर ही है । श्यामसुन्दर रूपी रस न होने पर कोई भी वस्तु श्री जी को निवेदन करने पर भी स्वीकार्य नही होती । श्री जी कोई भी सेवा स्वीकार करें अर्थात् उस सेवा में श्यामसुन्दर ही वहाँ है । कभी पुष्प , कभी आभूषण , कभी वस्त्र आदि । यह सब गूढ़ रहस्य है , रस पथिकों को सेवा के सौंदर्य में डूबे रहने हेतु सम्भवतः प्रकट हुआ हो ... सत्यजीत तृषित ।
अगली बार बात करेगे जब मानस भाव में श्री जी अप्रकट और श्यामसुन्दर संग होते है तब श्री जी कहाँ है ?और ऐसा क्यों हुआ ?
वास्तविक गहनतम रस दृश्य में दोनों ही सदा रसमय होते है यह रसमयता ही सहज युगल दर्शन पिपासु की भावना का सुंदर निकुँज दर्शन पिपासा से होता है । साधक युगल को सदा संग ही अनुभूत करे तब वह वास्तविक सखीत्व में होता है जब दोनों होते है और सदा नित्य होते है । --- तृषित ।।
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