वास्तविक प्रचारक
प्रचारक जितना गहन होंगे असर उतना ही होगा ।
प्रेमी भक्त का जीवन ही प्रचार हो जाता है । अतिरिक्त श्रम नही करना होता , जैसे कई पूर्व के रसिकवर । हम उन्हीं डूबी भावनाओं का अभिनय करने का प्रयास करते है , डूबने का नहीँ । डूबने में स्व के खोने का खतरा अनुभव करते है और जब स्थितियां प्रदर्शनात्मक हो तब अभिनय तो हो सकता है , प्रेममूर्छा कैसे होगी ? प्रेममुर्छा में क्या घट गया और कैसा घट गया वह स्वप्न की तरह खो जाता है और अभिनय में परिणाम के लिये ही सब होता है । चूँकि जब तक कर्मफल की चिंता होगी , उसका त्याग न होगा वास्तविक परिणाम कैसे आएगा । कर्मफल का खाका हमारे चित् में होता है अतः प्रयास होता है , रस नही बहता ।
महाप्रभु जहाँ से गुजर जाते थे वहाँ उनकी भावना और रसमयता व्याप्त हो जाती थी । वह स्वयं उस रस में छके थे , और उतने ही प्यासे भी थे । भीतर जिस वस्तु की आंतरिक सूक्ष्म व्याकुलता होगी परिणाम वैसा ही होगा , भीतर रस की या भगवत रसगान की व्याकुलता हुई तो वैसा ही होगा । भीतर प्रपञ्च का विस्तार रहा तो वैसा ही होगा ।
आज भी बहुत से प्रेमी है जिनके भीतर रस व्याकुलता से ही उपदेश होता है उनमें प्रपञ्च के विस्तार की भावना नही अपितु उससे क्षोभ ही होता है और उनके संग के जन में जिनसे उनका लौकिक या कोई भी सम्बन्ध है उनमें प्रपञ्च रहता है तो प्रपञ्च भी बढ़ता है पर उस बढे हुये प्रपञ्च में भी वह रसिकजन रस लोलुप्ता का ही सम्बन्ध तलाशते है ।
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