लीला और कर्म तृषित

लीला और कर्म

जयजय श्यामाश्याम ।
कुछ समय पूर्व हमने इस विषय पर विचार चाहा था , लीला और कर्म ।
रुझान बड़े सुंदर मिलें इस तरह प्रश्न होने चाहिये जिससे सत्संग रूपी सौन्दर्यता में नवीनता आवें ।

मनुष्य को कर्म लोलुप्ता से लीला दर्शन तक जाना है । अर्थात् कर्म में हम लिपे-पुते है और भगवत्प्रेम में प्रेम पिपासु नेत्रों से जो कर्म दीखता था वह लीला दिखने लगे ।
लीला का अर्थ है खेल । कर्म व्यक्ति रूचि से नहीँ करता । बल्कि जब जैसी रूचि हो वैसा कर्म अवसर होता ही नहीँ । दस साल पढ़कर डॉक्टर बन कर भी जब कर्म का अवसर आवें तब रूचि धीरे धीरे बदल जाती है । कर्म होना कर्मफल के त्याग के साथ चाहिये , यानी बिना परिणाम को विचारें । पर कर्म ऐसा होता ही नहीं जिसका परिणाम न विचारा गया हो , वास्तविक कर्म का उदय ही कर्मफल के त्याग पर होता है । और जब कर्मफल से आसक्ति नहीँ रहती तब कर्म से उपाधि मिल जाती है , यानि कर्मफल या परिणाम न विचार कर किया कर्म , कर्म से मुक्त कर देता है । कर्म - संसार और देह तीनों परस्पर गुंथे हुये है , बंधे हुये । जो जितना संसार जानता है उतना ही विचलित है , कर्म का अर्थ है देहत्व का बोध यानी देह को "मैं" मानना । कोई स्वयं को आत्मा ही माने तो आत्मा कर्म क्या करेगी ? स्वयं को देह जानते ही कर्म प्रकट होता है । मैं आत्मा हूँ यह भाव अकर्ता बना देगा फिर जो होगा वह स्वतः स्वभाविक क्रिया होगी , जो कि आवश्यक है ।
कर्म से उठी हुई अवस्था लीला है । कर्म में परिणाम का बोध है ,लीला में ऐसा नहीँ लीला का उद्देश्य आनन्द और रसवर्धन है । छोटे बच्चे को एकांत में देखिये वह जो करेगा अर्थ हीन होगा । जैसे वस्तुओं को बिखेरना , समेटना आदि । हर वृत्ति को ध्यान से देखिये एकांत में जब वह हो अथवा शिशुओं में ही हो ।
कर्म के वर्तमान में रस नहीँ कर्म फल में कुछ वांछित भावना ही कर्म करा रही होती है भले वह कर्म रुचिकर न हो । जैसे सड़कों पर रात्रि में सफाई होते हमने देखि अथवा कहीं भी कर्म करने वाले को देखिये वह कर्म केवल कर्म के बदले प्राप्त वस्तु हेतु करता है । वही सफाई प्रेमी या सेवक विनय और प्रार्थना कर चाहता है । प्रेमी अपने प्रियतम के विचरण क्षेत्र में झाड़ू लगाने को भी उतावले रहते है जबकि लोक में उसमें कोई रूचि नही , कारण परिणाम । प्रेम में वह सेवा स्वयं ही परिणाम है अतः लीला में परिणाम नहीँ होता लीला स्वयं मूल ही परिणाम है ।
खेल में खेल की ही भावना हो परिणाम न हो तब वह लीला है और उसी क्षण आनन्ददायिनी है । इसलिये खेल में रूचि रहती है क्योंकि उसमें कारण नही , रस है । जहाँ उसी खेल में कारण हो जाते है वह नीरस हो जाता है ।
कर्तापन से मुक्त व्यक्ति के संग जो होगा वह भगवत-लीला होगी क्योंकि उसमें मैं करता हूँ यह भाव नहीँ रहा और वह ही सब करते है यह भाव आ गया । "करना" होना हो जाये तो जगत् ईश्वर का लीला विलास ही दिखेगा । लीला में कर्ता ईश्वर होते है और जगत का खेल जब ईश्वर द्वारा होता दिखे तो वह कर्म नही होगा , ईश्वर कर्म नही करते लीला करते है । उन्हें फल की पिपासा नहीँ । जगत् में भी जिन्हें ईश्वर की लीला दिखती है वह सदा उनकी कृपा और अनुकम्पा से गद-गद रहते है । लीला के मूल में रस है । जैसे खेल के मूल में रस है वैसे ।
मनुष्य अगर शरणागत हो ईश्वर की भावना अनुरूप हो अपनी कामनाओं से उठ कर देखेगा तो ही जगत् लीला रूप दिखेगा । क्योंकि कामना और कारण से संसार है और निष्कामता और सहज - स्वभाविक होने में लीला ।
कर्म कर थका इंसान भी कुछ चाहता है जिससे उसे रस मिले । अतः उसे तरह तरह के अभिनय और उन्माद आकर्षित करते है क्योंकि उन सबमें कोई कारण-प्रयोजन नहीँ । अतः आज हँसाने वाला ईश्वर लगता है क्योंकि वह जो कर रहा है वह सब अकारण समझ आता है , सहज-स्वभाविक लगता है । मनुष्य जो नही हो सकता उसे ही भगवान कह देता है जो कि सरल सूत्र भी है परन्तु इससे सर्व रूप ईश्वर का दर्शन नहीँ हो सकता ।
भगवत् प्रेम मयी स्थितियो में भीतर बाहर जो होता है वह लीला ही होती है और बाहर की लीला जीवन के विकास को साधना बना कर भीतर की लीला जहाँ भगवत् सानिध्य और रस प्रत्यक्ष हो वहाँ खिलती जाती है । प्रेमी बाहर नही महकता भीतर महकता है ।
हाँ , बाहर बस कुछ सौरभता झर जाती है , जो कि आवश्यक नही । वरन् प्रेमी के अन्तः चित् में चलता लीला रस उसके आसपास का संसार नहीँ समझ पाता , ऐसे प्रेमियों से लाख फायेदा संसारिक घर मन्दिर के बाहर बैठे भिक्षुओं के संग पाता है जिनका चित् जाग्रत तो संसार को लगता है ।
लौकिक जगत विलास रूपी लीला से आंतरिक भावराज्य की आह्लादमयी आनन्दविस्तारिणी लीला और ईश्वर के प्रकट लीला काल की लीला सब प्रेमी से गूंथ जाती है ।
तात्विक दृष्टि से भी कर्ता वही है और वह कर्ता है तो जीव जो द्रष्टा है वह जो देख रहा है वह है "लीला" ।
लीला है ईश्वर का "विलास" । उनका रस , उसे देखा जा सकता है देख कर ही पिया भी जा सकता है और उस लीला में पात्र बन ईश्वर का संग भी किया जा सकता है यह सब पिपासा से सम्भव है ।
जगत में हमें जो अभिनय मिला है उसे ईश्वर के रंगमंच की लीला जान निर्वहन कर लेने पर नित्य लीला ही जीवन हो जाता है ।
कर्म इन अवस्थाओं तक कभी नही ले जा सकता है , कर्म उसी दायरे तक होगा जो हमारे मानस अनुरूप हो ईश्वर और उनका लीलाराज्य मानव चित् की कल्पना में समा जाने वाली वस्तु नहीँ है यह तो उनकी कृपा से सुलभ है अतः कर्म से उपाधि (उठ) से वास्तविक कर्ता और वास्तविक खेल प्रकट होता है । यहीं वह अर्जुन को कहते रहे , कर्म छोड़ा नही जाता बस कर्म के कर्तापन से उठा जा सकता है , वास्तविक कर्ता को जान और मान कर । जयजय श्यामाश्याम । जीवन में ईश्वर की नव लीला का अंकुर छिपा है स्व के विलीन होने पर वह प्रकट होगा । सत्यजीत तृषित ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय