"श्री गदाधर भटट जी" ये चैतन्यकालीन भक्तों में से एक है .ये बंगाली नहीं थे, पर चैतन्य महाप्रभु के अनन्य भक्त थे ब्राहमण  कुल के थे साधुंजन के पुंज थे .सज्जनता सुशीशलता सारे गुण इनमें थे .कहते है .जब केाई परमात्मा की ओर एक कदम बढा लेता है .तो सारे सदगुण भक्त के अंदर आ जाते है .जैसे कोई दुष्ट व्यक्ति बुरे कर्म करता है .तो सारे अवगुण उसके अंदर आ जाते है .ऐसे ही भक्त के अंदर सतगुण  अपने आप आ जाते है सदाचार,  त्याग, करूणा , जितनी भी चीजें हो.

प्रसंग १. - तो गदाधर भटट जी बडे ही भजनानंदी थे. प्रभु के चरणों में निष्ठा थी वृदांवन में श्रीमदभागवत की कथा करते थे और भक्त जब आते थे, तो वो कथा में डूब जाते थे सबकी आँखों में आँसू आ जाते थे .ये पद भी लिखा करते थे आज भी  इनके कई पद है .एक बार इनकी कथा में एक मंहत आए तो सबने आदर पूर्वक उनको आगें बिठा दिया तो उन मंहत ने देखा कि जब गदाधर जी कथा करते है .तो सभी व्यक्तियों की आँखोंसे प्रेम के आँसू बहने लगते है .सब कथा में डूब जाते है .पर मन में उनके एक बात आई कि मेरी आँखों से एक भी आँसू नहीं आया, इन भक्तों को देखो कि ये लोग कथा में रोने लगते है प्रेम के आँसू आते है.तो वो अगली बार से कथा में मिर्च गांठ में बाँधकर लाने लगे. जब कथा होती तो सब भक्त आँखें बंदकर करे रोते, तो वो मंहत अपनी आँखों में मिर्ची लगाकर रोने लगते तो एक भक्त ने देखा कि ये मंहत तो मिर्ची लगाकर रोते है और बाँकि सब लोग प्रेम के कारण रोते है .तो उस भक्त ने गदाधर भटट जी से कह दिया.

तो गदाधर जी ने उन मंहत को बुलाया और पूछाँ कि आप आँखों में मिर्ची क्येां लगाते हो तो मंहत बोले - कि जो  हद्रय परमात्मा की कथा सुनकर भी ना पिघले वो तो पत्थर के समान है और भगवान की कथा सुनकर जिसकी आँखों में प्रेम के आँसू ना आए, विरह के आँसू ना आए, उन आखों को सजा मिलनी चाहिए, तो मेरी आँखों को आँसू नहीं आते थे कथा को सुनकर. तो इनकी यहीं सजा है .कि इनमें मिर्ची लगाउॅ. 

गदाधर जी ने उनको गले से लगा लिया और बोले कि-  आप धन्य हो, आपके विचार कितने उच्च है .ये बात बिलकुल सही है कि भगवान का गान करे कीर्तन करके हमारा दिल ना पिघला तो ये पत्थर के समान है .वास्तव में उनके ह्रदय से लगाते ही वो अपने आप ही रोने लगे. और अब कथा में सबसे ज्यादा रोते ओर मिर्ची भी नहीं लाते. ये सतसंग का और संत के दर्शन का फल है. दो पल का सतसंग व्यक्ति को परमात्मा की ओर लगा देते है .तो संत के दर्शन मात्र से प्रेम जग जाता है .तो गदाधर जी ने उन्हें गले से लगाया तो कैसे उनके अंदर भक्तिी प्रेम नहीं जागता अब वे कथा में नित्य आते और रोज आँखों से आँसू आते.

प्रसंग २. - एक बार उनकी कथा में कलयाण सिहं राजपूत नामक के व्यक्ति आते थे जो पहले तो उतने भक्त नहीं थे पर जब कोई उनकी कथा सुनने प्रतिदिन आता वो अपने आप ही परमात्मा के सान्ध्यि में लग जाता तो वे राजपूत प्रतिदिन कथा में आने लगे, उनके उपर भक्तिी का रंग चढने लगा “वो ही बात कि प्रेम गली इतनी साकरी कि जा में दो ना समाए” प्रेम की गली इतनी सकरी है.कि उसमें दो चीजें समा नहीं सकती है .उसमें या तो संसार या परमात्मा ही आ सकते है .

तो कल्याण जी के उपर भक्तिी का रंग चढा तो उन्हें घर संसार अच्छा नहीं लगता था, उनकी पत्निी के साथ उनको अच्छा नहीं लगता तो इनकी पत्निी समझ गई कि ये जो इनकी कामवासना है .वो गदाधर भटट जी की कथा सनने के कारण ये विरक्त हो गए, इनको अब वैराग्य का रंग चढ गया है .तो इनकी पत्निी कामवश बुरा भला कहने लगी गदाधर जी को, और एक भिखारन को अपने पास बुलाया वो भिखारन गर्भवती थी तो उसे पटटी पढा दी कि तुम जाना और जहाँ पर गदाधर जी कथा करते है .वहाँ जाकर कहना कि आप हमें अपनाएँ, उसे पैसे दे दिए.

जब वो गदाधर जी के पास जाकर बोली वहाँ पर वो कथा कर रहे थे .और सारे लोग सुनकर रहे थे. तो वो बोली कि ये आपका गर्भ है. और आपके सिवा मेरा और कोई नहीं है. आप मुझे अपनाइए तो गदाधर जी को उसमें कोई भी दोष नजर नहीं आया और बोले - कि मै तो तेरा नित्य स्मरण कर रहा हूँ .अब तू ही इतने दिनों तक नहीं आई तो मैं क्या करूँ. तुम सच कह रही हो.

तो वहाँ पर जितने लोग बैठे थे सबको आष्चर्य हुआ कि गदाधर जी ऐसा कर ही नहीं सकते थे तो गदाधर जी ने उस भिखारन को अपने पास बिठाया ओर सभी लोगों को लगा कि जिनकी हम कथा इतने प्रेम से सुनते थे वो ऐसा करते है .ये धरती फट जाए और हम सभी उसमें समा जाँए. किसी को विश्वास नहीं था सब लोग जानते थे कि ये औरत झूठ बोल रही है .तो उन्हीं भक्तों में एक राधावल्लभ जी बैठे थे,

तो वो उस महिला के पास जाकर बोले - कि तुम सच बताओ कि तुम्हें किसने भेजा नहीं तो यही मार डालूँगा. तो उस महिला ने सब सच बता दिया कि कल्याण सिहं जी की पत्निी गदाधर जी से ईष्र्या करती है उन्हीनें मुझे

भेजा. तो कल्याण सिंह जी ने अपनी पत्निी को सदा के लिए त्याग दिया.

भक्तिी के पथ पर अगर कोई बाधा आ जाए कहते है .कि केाई अपना कितना भी प्रिय क्यों ना हो, कितना भी सगा क्यों ना हो, उसे त्याग देना चाहिए .सब लोग रोने लगे. क्येांकि गदाधर जी ने तो लाखों लोगों को रास्ता बताया है .भक्तिी के पथ पर कितने लोग आए है .ऐसे ही बहुत सी कथा है.

प्रसंग ३. - गदाधर जी की एक बार रात में भजन कर रहे थे तो एक चोर आया और सामान इकठठा करके जाने लगा तो सामान इतना ज्यादा था कि वो ले जा नहीं पा रहा था, तो गदाधर जी ने उससे कहा-  कि बताओ मै तुम्हे गठरी सिर पर लाद दूगाँ.

तो वो चोर बोला - कि आप कौन हो ?

तो वो बोले-  कि मेरा नाम गदाधर है . तो वो चोर समझ गया कि मै ऐसे भक्त के यहाँ चोरी कर रहा हूँ .जो भगवान की कथा नित्य करते है .तो गदाधर जी उससे बोले कि तू मेरी चिन्ता मत कर, ये सामान ले जा कल और लोग आएगें और दान देकर चले जाएगें. तू ये सामान ले जा,

संत का अगर दर्शन स्पर्श मिल जाए तो बडे से बडा दुरात्मा परमात्मा के पथ पर आ जाता है. तो वो चोर बदल गया ओर गदाधर जी के चरणों में गिरकर कहने लगा - कि मुझसे बहुत बडी गलती  हो आप मुझे रास्ते दिखाओ तो वो चोर आगें जाकर एक भक्त बन गया.

संत अपने लिए नहीं जीते है .वो तो दूसरों को भला करते है.उनके लिए क्या राजा क्या चोर क्या रंक सब एक समान है.और संत कभी अपना स्वाथ नहीं देखता वो जगत के कल्याण के बारे में सोचता है.संत चाहे तो वन में बैठकर भक्तिी कर सकता क्योंकि उसको परमात्मा मिल गए पर वो ये चाहता है.कि जो नाम उसे मिल गया उस परमात्मा के नाम को वो जगत में फैला दे, अगर उनका नाम लेने से मेरा कल्याण हुआ है.तो क्यों ना संसार के लोगों का भी कल्याण हो तो हम सब के आदर्श है ।

संत नाभा जी ने कहा - कि संत तो गुणों की खान है .उनके गुणों की कोई व्याख्या नहीं कर सकता है .गदाधर जी तो अदुभुत प्रकृति के धनी थे अपने मुख से उनका कोई गान नहीं कर सकता है .एक बार जब गदाधर जी प्रभु की सेवा कर रहे थे .और भजन गा रहे थे.तो एक सेवक एक थाली में धन लेकर आया तो उनका एक दास बैठा था पास में,

वो बोला - कि स्वामी जी!  आप ये चौका लगाना छोडिए वो सेवक धन लाया है ,मैं प्रभु के यहाँ चौका लगा देता हूँ.तो गदाधर जी ने कहा - कि मै क्यों परमात्मा की सेवा छोडकर संसार के कामों में लग जाउॅ ऐसा कौन सा काम है.जो प्रभु से बडा है मेरे प्रभु की सेवा ही महत्पूण्र है. सेवक के आने पर मैं सेवा कैसे छोड दूँ .मैं इस धन के लिए क्यों सेवा छोड दूँ.और अपने शिष्यों को समझाते कि केाई भक्त कितना भी धन दे जाए वो परमातम की सेवा से बढकर नहीं है.संत की प्रथामिकता परमात्मा की सेवा ही है .इससे बढकर संसार का कोई काम नहीं है.अपने शिष्यों को ऐसी शिक्षा देते रहते थे.उनकी वाणी से जब भगवन कथा होती थी तो लोग दूर-दूर से सुनने को आते थे ।

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