Radha ttav

����श्रीराधा-तत्त्व����

अद्वितीय इक तत्त्व है,राधा तत्व प्रधान।
याको दूजो रूप है,स्वयं कृष्ण भगवान।
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भावार्थ:- श्री वृष्भानुनन्दिनी राधिकाजी ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ तत्त्व हैं।
उन्ही का अपर अभिन्न स्वरूप सव्यं भगवान श्रीकृष्ण हैं।जिनका अवतार द्वापर युग के अन्त में हुआ था।
व्याख्या:-  सर्वप्रथम यह समझना है कि राधा-तत्त्व क्या है? वैसे तो राधा तत्त्व के पूर्व के तत्त्व ही इन्द्रिय-मन-बुद्धि से परे हैं।यहाँ तक कि जो श्री राधिका के अभिन्न स्वरूप श्रीकृष्ण भगवान हैं,वे भी श्री राधा तत्त्व का पार नही पा सके।यथा -

परम धन राधे नाम अधार।
कोटिन रूप धरे नँदनन्दन,तऊ न पायो पार।
फिर भी जहाँ तक समझाया जा सकता है,वहाँ तक समझाना एवं समझना परमावश्यक है।समस्त वेदों में   प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से केवल राधा तत्त्व का ही निरूपण है।यथा -

ब्रह्मवादिनो वदन्ति,कस्माद्राधिकामुपासते आदित्योsभ्यद्रवत्।

श्रुतयः उवाच -
सर्वाणि राधिकाया देवतानि सर्वाणि भूतानि राधिकायास्तां नमामः।
............................तां राधिकां शक्तिधात्रीं नमामः।
(अथर्ववेदीय-राधिका तापनीयोपनिषद्)

अर्थात् ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों के चित्त में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि अन्य महाशक्तियों की उपासना छोडकर श्री राधिका की ही उपासना क्यों की जाती है? यह प्रश्न उत्पन्न होते ही एक महान तेजःपुंज प्रकट हुआ।वह महान तेजःपुंज श्रुतियाँ ही थीं।उन श्रुतियों ने बताया कि समस्त देवी देवताओं में देवत्व शक्ति श्री राधा से ही आविर्भूत होती हैं।अतः हम श्रुतियाँ भी श्रीराधा को ही नमन करती हैं।श्री राधा जी के भय से समस्त दैवी महाशक्तियाँ थर-थर काँपती हैं।स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी श्रीराधा जी के भृकुटि विलास को भयभीत होकर देखते रहते हैं।जिन श्री राधा जी का हम श्रुतियाँ एवं सांख्य,योग,वेदान्त आदि भी पार नही पा सकते।अर्थात सम्यक प्रतिपादन नही कर सकते उनको हम प्रणाम् करते हैं। जगत्पति विश्वविमोहन नँदनन्दन की प्राणाधिकप्रिया परमोपास्या एवं शरणागत को अभय देने वाली श्री राधा को हम नमस्कार करते हैं।

प्रेम परायण आनन्दकन्द सच्चिदानन्द ब्रजेन्द्रनन्दन भी रासलीला में जिनकी चरण रज को मस्तक पर धारण करते हैं,एवं जिनके प्रेम-प्रभाव से अपनी मुरली और लकुटी आदि दिव्य विभूतियों को भुला देते हैं।यहाँ तक कि स्वयं श्री राधा जी के हाथ बिक जाते हैं।हम सब उनकी वन्दना करते हैं।स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी जिन श्री वृषभानुनन्दिनी राधा जी की अंगरूपी शैय्या के परमानन्द में अपने अपरिमेय सच्चिदानन्द स्वरूप तथा दिव्य चिन्मय धाम गोलोक को भी भुला देते हैं।महालक्ष्मी पार्वती आदि, जिन श्री राधा जी की अंश स्वरूपा शक्तियाँ मात्र हैं,उन महाशक्तियों की भी मूल महा-महाशक्ति स्वरूपा श्री राधा जी को नमस्कार है।
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राधा शब्द का अर्थ ही राधा तत्त्व की श्रेष्ठता का परिचय प्रदान कर देता है।

यथा - स्वादिपरस्मैपदी 'राध्' धातु पाणिनीय पाठ में है (राध् साध् संसिद्धौ)।उस राध् धातु से कर्म में 'अ' प्रत्यय करने से राधा शब्द बनता है।जिसका अर्थ है समस्त की आराध्या।वेद कहता है--

कृष्णेन आराध्यते इति राधा
(ऋग्वेदीयराधिकोपनिषत्)

तात्पर्य यह है कि अनन्त ब्रह्माण्डात्मक विश्व प्रपंच एवं ब्रह्मादि ब्रह्माण्डनायकों के परमाराध्य परब्रह्म श्रीकृष्ण भी श्री राधा तत्व की निरन्तर आराधना करते हैं।अतः राधा तत्त्व का सर्वोत्कृष्टत्व निर्विवाद सिद्ध हो गया।
इसके अतिरिक्त अनेक वेद मंत्रों में राधा तत्त्व का निरूपण है।
यथा --

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राथसः सवितारं नृचक्षसम्।
              (ऋगवेद 1-22-7)

स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते विभूतिरस्तु।
              (ऋगवेद 1-30-5)

इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वणः।
            (ऋगवेद 3-51-10)

केवल ऋगवेद मे ही राधा शब्द का प्रयोग सातों विभक्तियों में हुआ है।यथा --

राधः।        (ऋगवेद 1-9-5)
राधांसि    (ऋगवेद 1-12-8)
राधसा।  (ऋगवेद 1-48-14)
राधसे      (ऋगवेद 1-17-7)
राधसः     (ऋगवेद 1-15-5)
राधसाम्   (ऋगवेद 8-90-2)
राधसि   (ऋगवेद 4-32-21)
सभी ऋगवेदीय मंत्र हैं।

सारांश यह कि सर्वदेवदेवेश्वर तो श्रीकृष्ण ही हैं।यथा --

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्।
               (श्वेता.उप 6-7)

किन्तु राधा जी उन परब्रह्म परात्पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की भी आराध्या हैं।अतः ब्रह्माण्ड पुराण में स्वयं  भगवान श्रीकृष्ण ने कहा--

राधैवाराध्यते मया।

अर्थात् मैं केवल राधा तत्त्व की ही आराधना करता हूँ।
अन्यान्य पुराणों में भी श्री राधा तत्त्व का निरूपण है।
यथा -

पद्मपुराण,ब्रह्मवैवर्तपुराण,देवी भागवत पुराण,आदिपुराण,स्कन्द पुराण,मत्स्य पुराण आदि।
पुराणों के अतिरिक्त वृहत् गौतमीय तंत्र,नारद पांचरात्र,गर्गसंहिता आदि में भी राधा तत्त्व का विशद विवेचन है।विस्तार के भय से चर्चा संभव नही।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य,निम्बार्क,वल्लभ आदि समस्त वैष्णवाचार्यों का तो राधा तत्त्व प्राण स्वरूप हैं ही।

कुछ संशयात्मा तार्किको संशय होता है कि समस्त पुराणों में मूर्धन्य श्री भागवत पुराण में राधा तत्त्व का निरूपण नही है।यद्यपि इसके कई कारण हैं,फिर भी राघा तत्व का निर्देश भागवत में भी बरबस हो ही गया है।यथा -

अनयाssराधितो नूनं भगवान्
            ~~~~
हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविनदः प्रीतो यामनयद् रहः।।
          (भाग. 10-30-28)
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
                             ~~~~
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः।
उपर्युक्त दोनों स्थलों में राधा नाम का स्पष्ट उल्लेख है।
श्रीकृष्ण की भाँति श्री राधा जी के भी अनन्त नाम हैं।
यथा--

श्री,रमा,वृन्दा,इंदिरा,कान्ता, प्रिया तो कहीं आत्मा,कहीं लक्ष्मी नाम से भी राधा नाम का उल्लेख किया गया है।
भागवत के अन्य स्थलों पर अन्य पर्यायवाची नामों का स्पष्ट उल्लेख भी है।
'श्री'    (भाग. 10-83-42)
'रमा'   (भाग. 10-30-2)
'रमा'   (भाग. 10-33-17)
आचार्यों ने कहा है--

यथा प्रियंगु पत्रेषु गूढमारूण्यमिष्यते।
श्रीमद्भागवतेशास्त्रे राधिका तत्वमीदृशम।।
                        (सूत्रि)
अर्थात जैसे मेंहदी के हरे पत्ते में लालिमा प्रकट रूप से नही दिखाई पडती, किन्तु हाथ में लगाने से स्पष्ट प्रकट हो जाती है,उसी प्रकार भागवत संहिता में भी राधा नाम बार-बार संकेत से ही लिखा गया है।
   रसिकों की यह भी मान्यता है कि यदि शुकदेव जी राधा नाम का स्पष्ट उललेख करते तो उनको छः माह की समाधि हो जाती।जबकि परीक्षित का कल्याण सात दिन में ही करना था।यथा --

श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत् (सूक्ति)
अस्तु।

उपर्युक्त वेदादि प्रमाणों एवं युक्तियों से राधा तत्त्व अनादि अद्वितीय सिद्ध है।
अद्वितीय अर्थात जिसके समान अथवा जिससे बडा दूसरा तत्त्व न हो।शेष् जो भी तत्त्व हैं वे सब उन्हीं श्रीराधा से ही आविर्भूत हैं।इसी आशय से स्वयं श्रीराधा जी ने कहा।यथा --
ममैव पौरूषं रूपं गोपिका जनमोहनम्।
               (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
अर्थात् मेरे पुरुष शरीर वाले रूप को भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।जो गोपियों के प्राण कहे जाते हैं।
   वस्तुतस्तु राधाकृष्ण एक ही सत्ता के दो रूप एवं दो नाम हैं।लीला के हेतु ही दो रूप बनाये गये हैं।यह जीवों पर कृपा करने के उद्देश्य से किया गया है।एक भावुक भक्त कहता हैं,यथा -
देहस्तेsहं त्वमपि च ममासीति हन्तप्रवादः,
प्राणस्तेsहं त्वमपि च ममासीति तावत्प्रलापः।
त्वं में तेस्यामहमपि च तद्वाधितं साधुराधे,
नो युक्तौ नौ प्रणयविषये युष्मदस्मत्प्रयोगः।।

अर्थात् राधाकृष्ण के विषय में दो सत्ता का ज्ञान घोर अज्ञान है।
निर्गुण निर्विशेष निराकार ब्रह्म राधारूपी शक्ति से ही सगुण सविशेष साकार होता है।
   अतः राधा तत्त्व ही सर्वप्रमुख तत्त्व है।दर्शन शास्त्रों की दृष्टि से भी शक्ति (राधा) एवं शक्तिमान (श्रीकृष्ण) में भेद नहीं होता।
इति।
��राधे~राधे~राधे~राधे��
(भक्तियोगरसावतार जगदगुरू श्री कृपालु जी महाराज जी का कृपा प्रसाद, 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ से राधा तत्त्व पर दिए गए अतिविशिष्ट प्रवचन द्वारा)

श्रीराधा~तत्त्व
                3⃣
कुछ संशयात्मा तार्किको संशय होता है कि समस्त पुराणों में मूर्धन्य श्री भागवत पुराण में राधा तत्त्व का निरूपण नही है।यद्यपि इसके कई कारण हैं,फिर भी राघा तत्व का निर्देश भागवत में भी बरबस हो ही गया है।यथा -

अनयाssराधितो नूनं भगवान्
            ~~~~
हरिरीश्वरः।
यन्नो विहाय गोविनदः प्रीतो यामनयद् रहः।।
          (भाग. 10-30-28)
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
                             ~~~~
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः।
उपर्युक्त दोनों स्थलों में राधा नाम का स्पष्ट उल्लेख है।
श्रीकृष्ण की भाँति श्री राधा जी के भी अनन्त नाम हैं।
यथा-- श्री,रमा,वृन्दा,इंदिरा,कान्ता, प्रिया तो कहीं आत्मा,कहीं लक्ष्मी नाम से भी राधा नाम का उल्लेख किया गया है।
भागवत के अन्य स्थलों पर अन्य पर्यायवाची नामों का स्पष्ट उल्लेख भी है।
'श्री'    (भाग. 10-83-42)
'रमा'   (भाग. 10-30-2)
'रमा'   (भाग. 10-33-17)
आचार्यों ने कहा है--
यथा प्रियंगु पत्रेषु गूढमारूण्यमिष्यते।
श्रीमद्भागवतेशास्त्रे राधिका तत्वमीदृशम।।
                        (सूत्रि)
अर्थात जैसे मेंहदी के हरे पत्ते में लालिमा प्रकट रूप से नही दिखाई पडती, किन्तु हाथ में लगाने से स्पष्ट प्रकट हो जाती है,उसी प्रकार भागवत संहिता में भी राधा नाम बार-बार संकेत से ही लिखा गया है।
   रसिकों की यह भी मान्यता है कि यदि शुकदेव जी राधा नाम का स्पष्ट उललेख करते तो उनको छः माह की समाधि हो जाती।जबकि परीक्षित का कल्याण सात दिन में ही करना था।यथा --
श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छा षाण्मासिकी भवेत् (सूक्ति)
अस्तु।

उपर्युक्त वेदादि प्रमाणों एवं युक्तियों से राधा तत्त्व अनादि अद्वितीय सिद्ध है।
अद्वितीय अर्थात जिसके समान अथवा जिससे बडा दूसरा तत्त्व न हो।शेष् जो भी तत्त्व हैं वे सब उन्हीं श्रीराधा से ही आविर्भूत हैं।इसी आशय से स्वयं श्रीराधा जी ने कहा।यथा --
ममैव पौरूषं रूपं गोपिका जनमोहनम्।
               (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
अर्थात् मेरे पुरुष शरीर वाले रूप को भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।जो गोपियों के प्राण कहे जाते हैं।
   वस्तुतस्तु राधाकृष्ण एक ही सत्ता के दो रूप एवं दो नाम हैं।लीला के हेतु ही दो रूप बनाये गये हैं।यह जीवों पर कृपा करने के उद्देश्य से किया गया है।एक भावुक भक्त कहता हैं,यथा -
देहस्तेsहं त्वमपि च ममासीति हन्तप्रवादः,
प्राणस्तेsहं त्वमपि च ममासीति तावत्प्रलापः।
त्वं में तेस्यामहमपि च तद्वाधितं साधुराधे,
नो युक्तौ नौ प्रणयविषये युष्मदस्मत्प्रयोगः।।

अर्थात् राधाकृष्ण के विषय में दो सत्ता का ज्ञान घोर अज्ञान है।
निर्गुण निर्विशेष निराकार ब्रह्म राधारूपी शक्ति से ही सगुण सविशेष साकार होता है।
   अतः राधा तत्त्व ही सर्वप्रमुख तत्त्व है।दर्शन शास्त्रों की दृष्टि से भी शक्ति (राधा) एवं शक्तिमान (श्रीकृष्ण) में भेद नहीं होता।
विशेष:-
श्री राधा तत्व को भली भाँति समझने के लिए इस श्रंखला का कुल छः किश्त में विस्तार किया जा रहा है, श्री कृष्ण् की ह्लादिनी शाक्ति श्री राधा रानी के रूप में।
राधे~राधे~राधे~राधे
(भक्तियोगरसावतार जगदगुरू श्री कृपालु जी महाराज जी का कृपा प्रसाद, 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ से राधा तत्त्व पर दिए गए अतिविशिष्ट प्रवचन द्वारा)

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