मीरा चरित २

[9:09pm, 28/06/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि॥
मीरा चरित (22)

क्रमशः से आगे...........

दूदाजी के जाने के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गई । उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब उसके बाबोसा के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा ।यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते ।इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता ।पर धीरेधीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा -" लड़की बड़ी हो गई है, अतः इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है ।"

" सभी साधु तो अच्छे नहीं होते ।पहले की बात ओर थी ।तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी ।अब वह चौदह वर्ष की हो गई है । आख़िर कब तक कुंवारी रखेंगे ?"

एक दिन माँ ने फिर श्याम कुन्ज आकर मीरा को समझाया -" बेटी अब तू बड़ी हो गई है इस प्रकार साधुओं के पास देर तक मत बैठा कर ।उन बाबाओं के पा�स ऐसा क्या है जो किसी संत के आने की बात सुनते ही तू दौड़ जाती है ।यह रात रात भर रोना और भजन गाना , क्या इसलिए भगवान ने तुम्हें ऐसे रूप गुण दिये है ?"

        
     . "ऐसी बात मत फरमाओ भाबू ! भगवान को भूलना और सत्संग छोड़ना दोनों ही अब मेरे बस की बात नहीं रही ।जिस बात के लिए आपको गर्व होना चाहिए , उसी के लिए आप मन छोटा कर रही है ।"
मीरा ने तानपुरा उठाया .........

म्हाँने मत बरजे ऐ माय साधाँ दरसण जाती।
राम नाम हिरदै बसे माहिले मन माती॥
........................................
मीरा व्याकुल बिरहणि , अपनी कर लीजे॥

माता उठकर चली गई ।मीरा को समझाना उनके बस का न रहा ।सोचती - अब इसके लिए जोगी राजकुवंर कहाँ से ढूँढे ? मीरा भी उदास हो गयी ।बार बार उसे दूदाजी या�द आते ।

इन्हीं दिनों अपनी बुआ गिरिजा जी को लेने चितौड़ से कुँवर भोजराज अपने परिकर के साथ मेड़ता पधारे ; रूप और बल की सीमा , धीर -वीर, समझदार बीसेक वर्ष का नवयुवक । जिसने भी देखा, प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाया ।जँहा देखो, महल में यही चर्चा करते --"ऐसी सुन्दर जोड़ी दीपक लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी ।भगवान ने मीरा को जैसे रूप - गुणों से संवारा है, वैसा भाग्य भी दोनों हाथों से दिया है ।"
       
भीतर ही भीतर यह तय हुआ कि गिरिजा जी के साथ यहाँ से पुरोहित जी जायँ बात करने ।और अगर  वहाँ साँगा जी अनुकूल लगे तो गिरिजा जी को वापिस लिवाने के समय वीरमदेव जी बात पक्की कर लगन की तिथि निश्चित कर ले।

हवा के पंखों पर उड़ती हुईं ये बातें मीरा के कानों तक भी पहुँची ।वह व्याकुल हो उठी ।मन की व्यथा किससे कहे ? जन्मदात्री माँ ही जब दूसरों के साथ जुट गई है तो अब रहा ही  कौन? मन के मीत को छोड़कर मन की बात समझे भी और कौन ? पर वो भी क्या समझ रहे है ? भारी ह्रदय और रूधाँ कण्ठ ले उसने मन्दिर में प्रवेश किया --" मेरे स्वामी ! मेरे गोपाल !! मेरे सर्वस्व !!! मैं कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? मुझे बताओ , यह तुम्हें अर्पित तन -मन क्या अब दूसरों की सम्पत्ति बनेंगे ? मैं तो तुम्हारी हूँ....... याँ तो मुझे संभाल लो अथवा आज्ञा दो मैं स्वयं को बिखेर दूँ....... पर अनहोनी न होने दो मेरे प्रियतम ! "

झरते नेत्रों से मीरा अपने प्राणाधार को उनकी करूणा का स्मरण दिला मनाने लगी .........

म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ।
जल डूबत गजराज उबारायो जल में पकड़यो हाथ।
जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥

नरसी मेहता रे मायरे राखी वाँरी बात ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ॥

क्रमशः .................

॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (23)

क्रमशः से आगे ...............

कुँवर भोजराज पहली बार बुआ गिरिजा के ससुराल आये थे ।भुवा के दुलार की सीमा न थी ।एक तो मेवाड़ के उत्तराधिकारी , दूसरे गिरिजा जी के लाडले भतीजे और तीसरे मेड़ते के भावी जमाई होने के कारण पल पल महल में सब उनकी आवभगत में जुटे थे ।

जयमल और भोजराज की सहज ही मैत्री हो गई ।दोनों ही इधरउधर घूमते -घामते फुलवारी में आ निकले ।सुन्दर श्याम कुन्ज मन्दिर को देखकर भोजराज के पाँव उसी ओर उठने लगे । मीठी रागिनी सुनकर उन्होंने उत्सुकता से जयमल की ओर देखा ।जयमल ने कहा ," मेरी बड़ी बहन मीरा है ।इनके रोम रोम में भक्ति बसी हुई है ।"

           " जैसे आपके रोम रोम में वीरता बसी हुई है ।" भोजराज ने हँस कर कहा," भक्ति और वीरता , भाई बहन की ऐसी जोड़ी कहाँ मिलेगी ? विवाह कहाँ हुआ इनका ?"

           " विवाह ? विवाह की क्या बात फरमाते है आप ? विवाह का तो नाम भी सुनते ही जीजा (दीदी) की आँखों से आँसुओं के झरने बहने लगते है ।हुआ यों कि किसी बारात को देखकर जीजा ने काकीसा से पूछा कि हाथी पर यह कौन बैठा है ? उन्होंने बतलाया कि नगर सेठ की लड़की का  वर है ।यह सुनकर इन्होने जिद की कि मेरा वर बताओ ।काकीसा ने इन्हें चुप कराने के लिए कह दिया कि तेरा वर गिरधर गोपाल है ।बस, उसी समय से इन्होंने भगवान को अपना वर मान लिया है ।रात दिन बस भजन-पूजन , भोग- राग, नाचने -गाने में लगी रहती है ।जब यह गाने बैठती है तो अपने आप मुख से भजन निकलते जाते है ।बाबोसा के देहांत के पश्चात पुनः इनके विवाह की रनिवास में चर्चा होने लगी है ।इसलिए अलग रह श्याम कुन्ज में ही अधिक समय बिताती है ।" जयमल ने बाल स्वभाव से ही सहज ही सब बातें भोजराज को बताई ।

             " यदि आज्ञा हो तो ठाकुर जी और राठौड़ों की इस विभूति का मैं भी दर्शन कर लूँ ?" भोजराज ने प्रभावित होकर सर्वथा अनहोनी सी बात कही ।
        
न चाहते हुये भी केवल उनका सम्मान रखने के लिए ही जयमल बोले ," हाँ हाँ अवश्य ।पधारो ।"

उन दोनों ने फुलवारी की बहती नाली में ही हाथ पाँव धोये और मन्दिर में प्रवेश किया ।सीढ़ियाँ चढ़ते हुये भोजराज ने उस करूणा के पद की अंतिम पंक्ति सुनी...........
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥

वह भजन पूरा होते ही बेखबर मीरा ने अपने प्राणाधार को मनाते हुये  दूसरा भजन आरम्भ कर दिया .....

गिरधर लाल प्रीत मति तोड़ो ।
गहरी नदिया नाव पुरानी अधबिच में काँई छोड़ो॥

थें ही म्हाँरा सेठ बोहरा ब्याज मूल काँई जोड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रस में विष काँई घोलो॥

क्रमशः ...............
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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मीरा चरित (24)

क्रमशः से आगे..........

अश्रुसिक्त मुख और भरे कण्ठ से मीरा ह्रदय की बात , संगीत के सहारे अपने आराध्य से कह रही थी ।ठाकुर को उन्हीं के गुणों का वास्ता दे कर , उन्हें ही एकमात्र आश्रय मान कर ,अत्यन्त दीन भाव से कृपा की गुहार लगा रही थी ।मीरा अपने भाव में इतनी तन्मय थी कि किसी के आने का उसे ज्ञात ही नहीं हुआ ।

एक दृष्टि मूर्ति पर डालकर भोजराज ने उन्हें प्रणाम किया ।गायिका पर दृष्टि पड़ी तो देखा कि उसके नेत्रों से अविराम आँसू बह रहे थे जिससे बरबस ही मीरा का फूल सा मुख कुम्हला सा गया था ।यह देख कर युवक भोजराज ने अपना आपा खो दिया ।भजन पूरा होते ही जयमल ने चलने का संकेत किया ।तब तक मीरा ने इकतारा एक ओर रख आँखें खोली और तनिक दृष्टि फेर पूछा ," कौन है ?"

भोजराज को पीछे ही छोड़ कर आगे बढ़ कर स्नेह युक्त स्वर में जयमल बोले ," मैं हूँ जीजा ।" समीप जाकर और घुटनों के बल पर बैठकर अंजलि में बहन का आँसुओं से भीगा मुख लेते हुए आकुल स्वर में पूछा ,"किसने दुख दिया आपको ? " बस भाई के तो पूछने की देर भर थी कि मीरा के रूदन का तो बाँध टूट पड़ा ।वह भाई के कण्ठ लग फूट फूट कर रोने लगी ।

       " आप मुझसे कहिये तो जीजा, जयमल प्राण देकर भी आपको सुखी कर सके तो स्वयं को धन्य मानेगा ।" दस वर्ष का बालक जयमल जैसे आज बहन का रक्षक हो उठा ।

मीरा क्या कहे ,कैसे कहे ? उसका यह दुलारा छोटा भाई कैसे जानेगा कि प्रेम -पीर क्या होती है ? जयमल जब भी बहन के पास आता याँ कभी महल में रास्ते में मिल जाता तो मीरा कितनी ही आशीष भाई को देती न थकती-- "जीवता रीजो जग में , काँटा नी भाँगे थाँका पग में !" और " हूँ , बलिहारी म्हाँरा वीर थाँरा ई रूप माथे ।"

सदा हँसकर सामने आने वाली बहन को यूँ रोते देख जयमल तड़प उठा ," एक बार , जीजा आप कहकर तो देखो, मैं आपको यूँ रोते नहीं देख सकता ।"

         " भाई ! आप मुझे बचा लीजिए , बचा लीजिए , मीरा भरे कण्ठ से हिल्कियों के मध्य कहने लगी - "सभी लोग मुझे मेवाड़ के महाराज कुँवर से ब्याहना चाहते है ।स्त्री का तो एक ही पति होता है भाई ! अब गिरधर गोपाल को छोड़ ये मुझे दूसरे को सौंपना चाहते है ।मुझे इस पाप से बचा लीजिए भाई ..... आप तो इतने वीर है......मुझे आप तलवार के घाट उतार दीजिए ......मुझसे यह दुख नहीं सहा जाता ........मैं आपसे ..........मेरी राखी का मूल्य ......माँग रही हूँ ........भगवान आपका .......भला करेंगे ।

जयमल बहन की बात सुन कर सन्न रह गये । एक तरफ़ बहन का दुख और दूसरी तरफ़ अपनी असमर्थता  ।जयमल दुख से अवश होकर बहन को बाँहो में भर रोते हुये बोले ," मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया ।........यह हाथ आप पर उठें, इससे पूर्व जयमल के प्राण देह न छोड़ देंगे ? मुझे क्षमा कर दीजिये जीजा । मेरे वीरत्व को धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया....... ।"

दोनों भाई बहन  को भावनाओं में बहते ,रोते ज्ञात ही नहीं हुआ कि श्याम कुन्ज के द्वार पर एक पराया एवं सम्माननीय अतिथि खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख और सुन रहा है ।
क्रमशः ..............
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मीरा चरित (25)

क्रमशः से आगे .............

श्याम कुन्ज में मीरा और जयमल , दोनों भाई बहन एक दूसरे के कण्ठ लगे रूदन कर रहे है ।जयमल स्वयं को अतिश�य असहाय मान रहे है जो बहन की कैसे भी सहायता करने में असमर्थ पा रहेे है ।

भोजराज श्याम कुन्ज के द्वार पर खड़े उन दोनों की बातें आश्चर्य से सुन रहे थे ।वे थोड़ा समीप आ ही सीधे मीरा को ही सम्बोधित करते हुए बोले ," देवी !" उनका स्वर सुनते ही दोंनो ही चौंक कर अलग हो गये ।एक अन्जान व्यक्ति की उपस्थिति से बेखबर मीरा ने मुँह फेर कर उघड़ा हुआ सिर ढक लिया ।पलक झपकते ही वह समझ गई कि यह अन्जान , तनिक दुख और गरिमा युक्त स्वर और किसी का नहीं , मेवाड़ के राजकुमार का है ।थोड़े संकोच के साथ उसने उनकी ओर पीठ फेर ली ।

" देवी ! आत्महत्या महापाप है ।और फिर बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन भी इससे कम नहीं ।आपने जिस चित्तौड़ के राजकुवंर का नाम लिया , वह अभागा अथवा सौभाग्यशाली जन आपके सामने उपस्थित है ।मुझ भाग्यहीन के कारण ही आप जैसी भक्तिमती कुमारी को इतना परिताप सहना पड़ रहा है ।उचित तो यह है कि मैं ही देह छोड़ दूँ ताकि सारा कष्ट ही कट जाये , किन्तु क्या इससे आपकी समस्या सुलझ जायेगी ? मैं नहीं तो मेरा भाई - याँ फिर कोई ओर - राजपूतों में वरों की क्या कमी ? हम लोगों का अपने गुरूजनों पर बस नहीं चलता ।वे भी क्या करें ? क्या कभी किसी ने सुना है कि बेटी बाप के घर कुंवारी बैठी रह गई हो ? पीढ़ियों से जो होता आया है , उसी के लिए तो सब प्रयत्नशील है ।"

            भोजराज ने अत्यंत विनम्रता से अपनी बात समझाते हुये कहा ," हे देवी ! कभी किसी के घर आप जैसी कन्याएँ उत्पन्न हुईँ है कि कोई अन्य मार्ग उनके लिए निर्धारित हुआ हो ? मुझे तो इस उलझन का एक ही हल समझ में आया है ।और वो यह कि मातापिता और परिवार के लोग जो करे , सो करने दीजिए और अपना विवाह आप ठाकुर जी के साथ कर लीजिए ।यदि ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया तो....... मैं वचन देता हूँ कि केवल दुनिया की दृष्टि में बींद बनूँगा आपके लिए नहीं ।जीवन में कभी भी आपकी इच्छा के विपरीत आपकी देह को स्पर्श भी नहीं करूँगा ।आराध्य मूर्ति की तरह ............  ।"

भोजराज का गला भर आया ।एक क्षण रूककर वे बोले ," आराध्य मूर्ति की भाँति आपकी सेवा ही मेरा कर्तव्य रहेगा ।आपके पति गिरधर गोपाल मेरे स्वामी और आप ......... आप.......... मेरी स्वामिनी ।"

भीष्म प्रतिज्ञा कर , भोजराज पल्ले से आँसू पौंछते हुये पलट करके मन्दिर की सीढ़ियाँ उतर गये ।एक हारे हुये जुआरी की भाँति पाँव घसीटते हुये वे पानी की  नाली पर आकर बैठे ।दोनों हाथों से अंजलि भर भर करके मुँह पर पानी के छींटे  मारने लगे ताकि आते हुये जयमल से अपने आँसु और उनकी वज़ह छुपा पायें ।पर मन ने तो आज नेत्रों की राह से आज बह जाने की ठान ही ली थी ।वे अपनी सारी शक्ति समेट उठे और चल पड़े ।

जयमल शीघ्रतापूर्वक उनके समीप पहुँचे ।उन्होंने देखा - आते समय तो भोजराज प्रसन्न थे, परन्तु अब तो उदासी मुख से झर रही है ।उसने सोचा -संभवतः जीजा के दुख से दुखी हुए है, तभी तो ऐसा वचन दिया ।कुछ भी हो , जीजा इनसे विवाह कर सुखी ही होंगी ।

और भोजराज ? वे चलते हुये जयमल से बीच से ही विदा ले मुड़ गये ताकि कहीं एकान्त पा अपने मन का अन्तर्दाह बाहर निकालें ।

क्रमशः .............

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[9:31am, 29/06/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित(26)

क्रमशः से आगे...........

भोजराज श्याम कुन्ज से प्रतिज्ञा कर अपने डेरे लौट आये ।वहाँ आकर कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा पड़े ।पर चैन नहीं पड़ रहा था ।कमर में बंधी कटार चुभी , तो म्यान से बाहर निकाल धार देखते हुये अनायास ही अपने वक्ष पर तान ली  ....... ।

एक क्षण........  में ही लगा जैसे बिजली चमकी हो ।अंतर में मीरा आ खड़ी हुईं ।उदास मुख , कमल- पत्र पर ठहरे ओस-कण से आँसू गालों पर चमक रहे है ।जलहीन मत्स्या (मछली ) सी आकुल दृष्टि मानो कह रही हो - आप ऐसा करेंगे -तो मेरा क्या होगा ?

भोजराज ने तड़पकर कटार दूर फैंक दी ।मेवाड़ का उत्तराधिकारी , लाखों वीरों का अग्रणी, जिसका नाम सुनकर ही शत्रुओं के प्राण सूख जाते है और दीन -दुखी श्रद्धा से जयजयकार कर उठते है ,जिसे देख माँ की आँखों में सौ- सौ सपने तैर उठते है ......वही मेदपाट का भावी नायक आज घायल शूर की भाँति धरा पर पड़ा है ।आशा -अभिलाषा और यौवन की मानों अर्थी उठ गई हो ।उनका धीर -वीर ह्रदय प्रेम पीड़ा से कराह उठा ।उन्हें इस दुख में भाग बाँटने वाला कोई दिखाई नहीं देता ।उनके कानों में मीरा की गिरधर को करूण पुकार .......

म्हाँरा सेठ बोहरा , ब्याज मूल काँई जोड़ो।
गिरधर लाल प्रीति मति तोड़ो ॥

गूँज रही है...... ।

"हाय ! कैसा दुर्भाग्य है इस अभागे मन का ? कहाँ जा लगा यह ? ज�हाँ इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं ।पाँव तले रूँदने का भाग्य लिखाकर आया बदनसीब ! "

"मीरा..... कितना मीठा नाम है यह, जैसे अमृत से सिंचित हो ।अच्छा इसका अर्थ क्या है भला ?किससे पूछुँ?" "अब  तो .....  उन्हीं से पूछना होगा ।उनके .......चित्तौड़ आने पर ।" उनके होंठों पर मुस्कान , ह्रदय में विद्युत तरंग थिरक गई ।वे  मीरा से मानों प्रत्यक्ष बात करने लगे -" मुझे केवल तुम्हारे दर्शन का अधिकार चाहिए ......तुम प्रसन्न रहो.......तुमहारी सेवा का सुख पाकर यह भोज निहाल हो जायेगा ।मुझे और कुछ नहीं चाहिए ...... कुछ भी नहीं ।"

अगले दिन ही भोजराज ने गिरिजा बुआ से और वीरमदेव जी से घर जाने की आज्ञा माँगी ।गिरिजा जी ने भतीजे का मुख थोड़ा मलिन देख पूछा तो भोजराज ने हँस कर बात टाल दी ।हाँलाकि वे मेड़ता में सबका सम्मान करते पर अब उनका यहां मन न लग रहा था ।

भोजराज चित्तौड़ आ गये पर उनका मन अब यहाँ भी नहीं लगता था ।न जाने क्यों अब उन्हें एकान्त प्रिय लगने लगा ।एकान्त मिलते ही उनका मन श्याम कुन्ज में पहुँच जाता ।रोकते- रोकते - भी वह उन बड़ी -बड़ी झुकी आँखों , स्वर्ण गौर वर्ण, कपोलों पर ठहरी अश्रु बूँदों, सुघर नासिका , उसमें लगी हीरक कील , कानों में लटकती झूमर , वह आकुल व्याकुल दृष्टि ,उस मधुर कंठ-स्वर के चिन्तन में खो जाता ।वे सोचते ," एक बार भी तो उसने आँख उठाकर नहीं देखा मेरी ओर ।पर क्यों देखे ? क्या पड़ी है उसे ? उसका मन तो अपने अराध्य गिरधर में लगा है ।यह तो तू ही है , जो अपना ह्रदय उनके चरणों में पुष्प की तरह चढ़ा आया है, जहाँ स्वीकृति के कोई आसार भी नहीं और न ही आशा ।"

क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[10:38am, 30/06/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (27)

क्रमशः से आगे ...........

मेड़ता से गये पुरोहित जी के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित और उनकी पत्नी मीरा को देखने आये ।राजमहल में उनका आतिथ्य सत्कार हो रहा है ।पर मीरा को तो जैसे वह सब दीखकर भी दिखाई नहीं दे रहा है ।उसे न तो कोई रूचि है न ही कोई आकर्षण ।

दूसरे दिन माँ सुन्दर वस्त्राभूषण लेकर एक दासी के साथ मीरा के पास आई ।आग्रह से स्थिति समझाते हुये मीरा को सब पहनने को कहा ।
मीरा ने बेमन से कहा ,"आज जी ठीक नहीं है , भाबू ! रहने दीजिये , किसी और दिन पहन लूँगी ।"

माँ खिन्न हो कर उठकर चली गई ।तो मीरा ने उदास मन से तानपुरा उठाया और गाने लगी .......

राम नाम मेरे मन बसियो रसियो राम रिझाऊँ ए माय ।
.................................
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रज चरणन की पाऊँ ए माय ॥

भजन विश्राम कर वह उठी ही थी कि माँ और काकीसा के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित जी की पत्नी ने श्याम कुन्ज में प्रवेश किया ।मीरा उनको यथायोग्य प्रणाम कर बड़े संकोच के साथ एक ओर हटकर ठाकुर जी को निहारती हुईं खड़ी हो गई ।

पुरोहितानी जी  ने तो ऐसे रूप की कल्पना भी न की थी ।वह , लज्जा से सकुचाई मीरा के सौंदर्य से विमोहित सी हो गई और उनसे प्रणाम का उत्तर ,आशीर्वाद भी स्पष्ट रूप से देते न बना ।वे कुछ देर मीरा को एकटक निहारते ही बैठी रही ।दासियों ने आगे बढ़िया चरणामृत प्रसाद दिया ।कुछ समय और यूँ ही मन्त्रमुग्ध बैठी फिर काकीसा के साथ चली गई ।

माँ ने सबके जाने के बाद फिर मीरा से कहा ," तेरा क्या होगा , यह आशंका ही मुझे मारे डालती है ।अरे विनोद में कहे हुये भगवान से विवाह करने की बात से क्या जगत का व्यवहार चलेगा ? साधु-संग ने तो मेरी कोमलांगी बेटी को बैरागन ही बना दिया है ।मैं अब किससे जा कर बेटी के सुख की भिक्षा माँगू?"

" माँ आप क्यों दुखी होती है ? सब अपने भाग्य का लिखा ही पाते है ।यदि मेरे भाग्य में दुख लिखा है तो क्या आप रो -रो कर उसे सुख में पलट सकती है ?तब जो हो रहा है उसी में संतोष मानिये ।मुझे एक बात समझ में नहीं आती भाबू ! जो जन्मा है वह मरेगा ही , यह बात तो आप अच्छी तरह जानती है ।फिर जब आपकी पुत्री को अविनाशी पति मिला है तो आप क्यों दुख मना रही है ?आपकी बेटी जैसी भाग्यशालिनी और कौन है , जिसका सुहाग अमर है ।"

वीरकुवंरी जी एक बार फिर मीरा के तर्क के आगे चुप हो चली गई ।मीरा श्याम कुन्ज में अकेली रह गई । आजकल दासियों को भी कामों की शिक्षा दी जा रही है क्योंकि उन्हें भी मीरा के साथ चितौड़ जाना है ।मीरा ने एकान्त पा फिर आर्त मन से प्रार्थना आरम्भ की............

तुम सुनो दयाल म्हाँरी अरजी ।

भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी।
या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी॥

मात पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी॥

क्रमशः ................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥ 
[10:38am, 30/06/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (28)

क्रमशः से आगे..............

मीरा श्याम कुन्ज में एकान्त में गिरधर के समक्ष बैठी है ।आजकल दो ही भाव उस पर प्रबल होते है - याँ तो ठाकुर जी की करूणा का स्मरण कर उनसे वह कृपा की याचना करती है और याँ फिर अपने ही भाव- राज्य में खो अपने श्यामसुन्दर से बैठे बातें करती रहती है ।

इस समय दूसरा भाव अधिक प्रबल है- मीरा गोपाल से बैठे निहोरा कर रही है---

थाँने काँई काँई कह समझाऊँ
      म्हाँरा सांवरा गिरधारी ।
     पूरब जनम की प्रीति म्हाँरी
      अब नहीं जात निवारी ॥

सुन्दर बदन जोवताँ सजनी
      प्रीति भई छे भारी ।
      म्हाँरे घराँ पधारो गिरधर
      मंगल गावें नारी ॥

मोती  चौक पूराऊँ व्हाला
      तन मन तो पर वारी ।
      म्हाँरो सगपण तो सूँ साँवरिया
       जग सूँ नहीं विचारी ॥

मीरा कहे गोपिन को व्हालो
      हम सूँ भयो ब्रह्मचारी ।
       चरण शरण है दासी थाँरी
        पलक न कीजे न्यारी ।॥

मीरा गाते गाते अपने भाव जगत में खो गई -वह सिर पर छोटी सी कलशी लिए यमुना जल लेकर लौट रही है ।उसके तृषित नेत्र इधरउधर निहार कर अपना धन खोज रहे है । वो यहीं कहीं होंगे -आयेंगे -नहीं आयेंगे .....बस इसी ऊहापोह में  धीरेधीरे चल रही थी कि पीछे से किसी ने मटकी उठा ली ।उसने अचकचाकर ऊपर देखा तो - कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे है ।लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहर नहीं रही ।लज्जा नीचे और प्रेम उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है ।वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े ।वह चौंककर चीख पड़ी , और साथ ही उन्हें देख लजा गई ।

             " डर गई न ?" उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़ कर कहा -" चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें ।"

सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये । मुस्कुरा कर बोले ," तुझे क्या लगा - कोई वानर कूद पड़ा है क्या ? अभी पानी भरने का समय है क्या ? दोपहर में पता नहीं घाट नितान्त सूने रहते है ।जो कोई सचमुच वानर आ जाता तो ?"

            " तुम हो न ।" उसके मुख से निकला ।
             " मैं क्या यहाँ ही बैठा ही रहता हूँ ? गईयाँ नहीं चरानी मुझे ?"

          " एक बात कहूँ ? " मैने सिर नीचा किए हुये कहा ।
          " एक नहीं सौ कह , पर माथा तो ऊँचा कर ! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू ।" उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा ।
            " अच्छो -अच्छो मुख नीचो ही रहने दे ।कह, का बात है ?"

          
           " तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ?" बहुत कठिनाई से मैंने कहा ।
              " तो सखी ! तोहे मैं अप्रसन्न दीख रहयो हूँ ।"

      
           " नहीं -- मेरा वो मतलब नहीं था .... ।सुना है .... तुम प्रेम से वश में होते हो ।"
           " मोको वश में करके क्या करेगी सखी ! नाथ डालेगी कि पगहा बाँधेगी ? मेरे वश हुये बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला ?"

         " सो नहीं श्यामसुन्दर !"
         "तो फिर क्या ? कब से पूछ रहो हूँ ।तेरो मोहढों (मुख) तो पूरो खुले हु नाय ।एकहु बात पूरी नाय निकसै ।अब मैं भोरो- भारो कैसे समझूँगो ?"

           " सुनो श्यामसुन्दर ! मैंने आँख मूँदकर पूरा ज़ोर लगाकर कह दिया -" मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिए ।"
           " सो कहा होय सखी ?" उन्होंने अन्जान बनते हुये पूछा ।

अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी ।

           " सखी , रोवै मति ।"उन्होंने मेरे आँसू पौंछते हुये पूछा -"और ऐसो अनुराग कैसो होवे री ?"
           " सब कहवें , उसमें अपने सुख की आशा - इच्छा नहीं होती।"
           " तो और कहा होय ?" श्यामसुन्दर ने पूछा ।
            " बस तुम्हारे सुख की इच्छा । "
            "और कहा अब तू मोकू दुख दे रही है ?"ऐसा कह हँसते हुये मेरी मटकी लौटाते हुये बोले ," ले अपनी कलशी ! बावरी कहीं की !"

और वह वन की ओर दौड़ गये ।मैं वहीं सिर पर मटकी ठगी सी बैठी रही ।

क्रमशः ......... .......
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:02am, 01/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (29)

क्रमशः से आगे ...........

विवाह के उत्सव घर में होने लगे- हर तरफ कोलाहल सुनाई देता था । मेड़ते में हर्ष समाता ही न था ।मीरा तो जैसी थी , वैसी ही रही । विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी ।उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगी ।

मीरा को किसी भी बात का कोई उत्साह नहीं था । किसी भी रीति - रिवाज़ के लिए उसे श्याम कुन्ज से खींच कर लाना पड़ता था ।जो करा लो , सो कर देती ।न कराओ तो गिरधर लाल के वागे (पोशाकें) , मुकुट ,आभूषण संवारती , श्याम कुन्ज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती ।खाना पीना , पहनना उसे कुछ भी नहीं सुहाता ।श्याम कुन्ज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी -पड़ी रोती रहती ।

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता । किन्तु सुनने का , देखने का समय ही किसके पास है ?  सब कह रहे है कि मेड़ता के तो भाग जगे है कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा ।उसके स्वागत में ही सब बावले हुये जा रहे है ।कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है ?

वह आत्महत्या की बात सोचती -

"ले कटारी कंठ चीरूँ कर लऊँ मैं अपघात।
आवण आवण हो रह्या रे नहीं आवण की बात ॥"

किन्तु आशा मरने नहीं देती । जिया भी तो नहीं जाता , घड़ी भर भी चैन नहीं था । मीरा अपनी  दासियों -सखियों से पूछती कि कोई संत प्रभु का संदेशा लेकर आये है ? उसकी आँखें सदा भरी भरी रहती -........

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा है ।उसके विरह के पद जो भी सुनता , रोये बिना न रहता ।

कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
      आवन की मनभावन की ॥

आप न आवै लिख नहीं भेजे ,
     बान पड़ी ललचावन की ।
     ऐ दोऊ नैण कह्यो नहीं मानै,
      नदिया बहै जैसे सावन की॥

कहा करूँ कछु बस नहिं मेरो,
      पाँख नहीं उड़ जावन की  ।
       मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
        चेरी भई तेरे दाँवन की॥

कोई कहियो रे प्रभु आवन की,
      आवन की मनभावन की...........
क्रमशः ......................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:57am, 02/07/2015] सत्यजीत तृषित: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (30)

क्रमशः से आगे.............

मीरा का विरह बढ़ता जा रहा था । इधर महल में, रनिवास में जो भी रीति रिवाज़ चल रहे थे - उन पर भी उसका कोई वश नहीं था ।मीरा को एक घड़ी भी चैन नहीं था- ऐसे में न तो उसका ढंग से कुछ खाने को मन होता और न ही किसी ओर कार्य में रूचि । सारा दिन प्रतीक्षा में ही निकल जाता -शायद ठाकुर किसी संत को अपना संदेश दे भेजे याँ कोई संकेत कर मुझे कुछ आज्ञा दें......और रात्रि किसी घायल की तरह रो रो कर निकलती ।ऐसे में जो भी गीत मुखरित होता वह विरह के भाव से सिक्त होता ।

घड़ी एक नहीं आवड़े तुम दरसण बिन मोय।
............................................
जो मैं ऐसी जाणती रे प्रीति कियाँ दुख होय।
नगर ढिंढोरा फेरती रे प्रीति न कीजो कोय॥

पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ ऊभी मारग जोय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगा तुम मिलियाँ सुख होय
(ऊभी अर्थात किसी स्थान पर रूक कर प्रतीक्षा करनी ।)

कभी मीरा अन्तर्व्यथा से व्याकुल होकर अपने प्राणधन को पत्र लिखने बैठती । कौवे से कहती - " तू ले जायेगा मेरी पाती, ठहर मैं लिखती हूँ ।" किन्तु एक अक्षर भी लिख नहीं पाती ।आँखों से आँसुओं की झड़ी काग़ज़ को भिगो देती --

पतियां मैं कैसे लिखूँ लिखी ही न जाई॥
कलम धरत मेरो कर काँपत हिय न धीर धराई॥॥
मुख सो मोहिं बात न आवै नैन रहे झराई॥
कौन विध चरण गहूँ मैं सबहिं अंग थिराई॥
मीरा के प्रभु आन मिलें तो सब ही दुख बिसराई

मीरा दिन पर दिन दुबली होती जा रही थी ।देह का वर्ण फीका हो गया ,मानों हिमदाह से मुरझाई कुमुदिनी हो ।वीरकुवंरी जी ने पिता रतनसिंह को बताया तो उन्होंने वैद्य को भेजा ।वैद्य जी ने निरीक्षण करके बताया - "बाईसा को कोई रोग नहीं , केवल दुर्बलता है ।"

वैद्य जी गये तो मीरा मन ही मन में कहने लगी - कि यह वैद्य तो अनाड़ी है ,इसको मेरे रोग का मर्म क्या समझ में आयेगा ।" मीरा ने इकतारा लिया और अपने ह्रदय की सारी पीड़ा इस पद में उड़ेल दी........

ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी ,
     मेरो दरद न जाणे कोय ।
    
सूली ऊपर सेज हमारी ,
      सोवण किस विध होय ।
      गगन मँडल पर सेज पिया की,
      किस विध मिलना होय ॥

घायल की गति घायल जाणे,
      जो कोई घायल होय ।
      जौहर की गति जौहरी जाणे,
       और न जाणे कोय ॥

दरद की मारी बन बन डोलूँ,
      वैद मिल्या नहीं कोय ।
       मीरा की प्रभु पीर मिटै जब,
        वैद साँवरिया होय ॥

क्रमशः ....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

[9:47am, 02/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
��मीरा चरित (31)

क्रमशः से आगे ............

मीरा श्याम कुन्ज में अपने गिरधर के समक्ष बैठी उन्हें अश्रुसिक्त नेत्रों से निहोरा कर रही थी ।

               " बाईसा ! बाईसा हुकम !" केसर दौड़ी हुई आयी । उसका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था ।" बाईसा जिन्होंने आपको गिरधरलाल बख्शे थे न, वे संत नगर मन्दिर में पधारे हैं ।" एक ही सांस में केसर ने सब बतलाया ।

           " ठाकुर ने बड़ी कृपा की जो इस समय संत दर्शन का सुयोग बनाया ।" मीरा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा ।" जा केसर उन्हें राजमन्दिर में बुला ला ! मैं तेरा अहसान मानूँगी ।"

            " अहसान क्या बाईसा हुकम ! मैं तो आपकी चरण रज हूँ ।मैं तो अपने घर से आ रही थी तो वे मुझे रास्ते में मिले , उन्होंने मुझसे सब बात कहकर यह प्रसादी तुलसी दी और कहा कि मुझे एक बार मेरे ठाकुर जी के दर्शन करा दो । अपने ठाकुर जी का नाम लेते ही उनकी आँखों से आँसू बहने लगे ।बाईसा ! उनका नाम भी गिरधरदास है ।"

मीरा शीघ्रता से उठकर महल में भाई जयमल के पास गई और उनसे सारी बात कही ।" उन संत को आप कृपया कर श्याम कुन्ज ले पधारिये भाई ।"

       " जीजा ! किसी को ज्ञात हुआ तो गज़ब हो जायेगा ।आजकल तो राजपुरोहित जी  नगर के मन्दिर से ही आने वाले संतो का सत्कार कर विदा कर देते है ।सब कहते है , इन संत बाबाओं ने ही मीरा को बिगाड़ा है ।"

           " म्हूँ आप रे पगाँ पड़ू भाई ।! मीरा रो पड़ी ।" भगवान आपरो भलो करेला ।"

             " आप पधारो जीजा ! मैं उन्हें लेकर आता हूँ ।किन्तु किसी को ज्ञात न हो ।पर जीजा , मैंने तो सुना है कि आप जीमण (खाना ) नहीं आरोगती ,आभूषण नहीं धारण नहीं करती ।ऐसे में मैं अगर साधु ले आऊँ और आप गाने -रोने लग गई तो सब मुझ पर ही बरस पड़ेगें ।"

       " नहीं भाई ! मैं अभी जाकर अच्छे वस्त्र आभूषण पहन लेती हूँ ।और गिरधर का प्रसाद भी रखा है ।संत को जीमा कर मैं भी पा लूँगी ।और आप जो भी कहें , मैं करने को तैयार हूँ ।"

          " और कुछ नहीं जीजा! बस विवाह के सब रीति रिवाज़ सहज से कर लीजिएगा ।आपको पता है जीजा आपके किसी हठ की वज़ह से बात युद्ध तक भी पहुँच सकती है ।आपका  विवाह और विदाई सब निर्विघ्न हो जाये- इसकी चिन्ता महल में सबको हो रही है ।"

          " बहन -बेटी इतनी भारी होती है भाई ? मीरा ने भरे मन से कहा ।"
          " नहीं जीजा !" जयमल केवल इतना ही बोल पाये ।

              "आप उन संत को ले आईये भाई ! मैं वचन देती हूँ कि ऐसा कुछ न करूँगी , जिससे मेरी मातृभूमि पर कोई संकट आये अथवा मेरे परिजनों का मुख नीचा हो ।आप सबकी प्रसन्नता पर मीरा न्यौछावर है ।बस अब तो आप संत दर्शन करा दीजिये भाई !""

गिरधरदास जी ने जब श्याम कुन्ज में प्रवेश किया तो वहाँ का दृश्य देखकर वे चित्रवत रह गये ।चार वर्ष की मीरा अब पन्द्रह वर्ष की होने वाली थी ।सुन्दर वस्त्र आभूषणो से सज्जित उसका रूप खिल उठा था ।सुन्दर साड़ी के अन्दर काले केशों की मोटी नागिन सी चोटी लटक रही थी ।अधरों पर मुस्कान और प्रेममद से छके नयनों में विलक्षण तेज़ था ।श्याम कुन्ज देवागंना जैसे उसके रूप से प्रभासित था ।गिरधर दास उसे देखकर ठाकुर जी के दर्शन करना भूल गये ।

संत को प्रणाम करने जैसे ही मीरा आगे बढ़ी, उसके नूपुरों की झंकार से वे सचेत हुये ।वर रूप में सजे गिरधर गोपाल के दर्शन कर उन्हें लगा --मानों वह वृन्दावन की किसी निभृत निकुन्ज में आ खड़े हुये है ।उन्हें देखकर जैसे एकाएक श्याम सुन्दर ने मूर्ति का रूप धारण कर लिया और कोई ब्रजवनिता अचकचाकर वैसे ही खड़ी रह गई हो ।उनकी आँखों में आँसू भर आये ।श्याम कुन्ज का वैभव और उस दिव्यांगना प्रेम पुजारिन को देख कर उन्होंने ठाकुर जी से कहा -'इस रमते साधुके पास सूखे टिकड़  और प्रेमहीन ह्रदयकी सेवा ही तो मिलती  थी तुम्हें ! अब य�हां आपका सुख देखकर जी सुखी हुआ ।किन्तु लालजी ! इस प्रेम वैभव में इस दास को भुला मत देना ।'

अपने गिरधर के, ह्रदय नेत्र भर दर्शन कर लेने के पश्चात बाबा वस्त्र -खंड से आँसू पौंछते हुये बोले ," बेटी ! तुम्हारी प्रेम सेवा देख मन गदगद हुआ ।मैं तो प्रभु के आदेश से द्वारिका जा रहा हूँ ।यदि कभी द्वारिका आओगी तो भेंट होगी अन्यथा ......... ।लालजी के दर्शन की अभिलाषा थी, सो मन तृप्त हुआ ।"

            " गिरधर गोपाल की बड़ी कृपा है महाराज ! आशीर्वाद दीजिये कि सदा ऐसी ही कृपा बनाए रखें ।ये मुझे मिले याँ न मिले , मैं इनसे मिली रहूँ ।आप बिराजे महाराज ! " उसने केसर से प्रसाद लाने को कहा और स्वयं तानपुरा लेकर गाने लगी ..........

��साँवरा...................
साँवरा, म्हाँरी प्रीत निभाज्यो जी ।
........................................

क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[9:47am, 02/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
��मीरा चरित (32)

क्रमशः से आगे...............

मीरा ने सदा की तरह गीत के माध्यम से अपने भाव गिरधर के समक्ष प्रस्तुत किये.......

��साँवरा म्हाँरी प्रीत निभाज्यो जी ।

��थें छो म्हाँरा गुण रा सागर,
     औगण म्हाँरा मति जाज्यो जी ।
     लोकन धीजै म्हाँरो मन न पतीजै
     मुखड़ा रा सबद सुणाज्यो जी॥

��म्हें तो दासी जनम जनम की,
     म्हाँरे आँगण रमता आज्यो जी ।
     मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
      बेड़ा पार लगाज्यो जी ॥��

भजन की मधुरता और प्रेम भरे भावों से गिरधरदास जी तन्मय हो गये ।कुछ देर बाद आँखें खोलकर उन्होंने सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।उसके सिर पर हाथ रखकर  अन्तस्थल से मौन आशीर्वाद दिया ।केसर द्वारा लाया गया प्रसाद ग्रहण किया और चलने को प्रस्तुत हुये । जाने से पहले एक बार फिर मन भर कर अपने ठाकुर जी की छवि को अपने नेत्रों में भर लिया । प्रणाम करके वे बाहर आये ।मीरा ने झुककर उनके चरणों में मस्तक रखा तो दो बूँद अश्रु संत के नेत्रों से निकल उसके मस्तक पर टपक पड़े ।

" अहा, संतों के दर्शन और सत्संग से कितनी शांति -सुख मिलता है ?यह मैं इन लोगों को कैसे समझाऊँ? वे कहते है कि हम भी तो प्रवचन सुनते ही है पर हमें तो कथा में रोना-हँसना कुछ भी नहीं आता ।अरे, कभी खाली होकर बैठें , तब तो कुछ ह्रदय में भीतर जायें ।बड़ी कृपा की प्रभु ! जो आपने संत दर्शन कराये । और जो हो, सो हो, जीवन जिस भी दिशा में मुड़े , बस आप अपने प्रियजनों - निजजनों -संतों - प्रेमियों का संग देना प्रभु ! उनके अनुभव ,उनके मुख से झरती तुम्हारे रूप, गुण , माधुरी की चर्चा प्राणों में फिर से जीने का उत्साह भर देती है, प्राणों में नई तरंग की हिल्लोर उठा देती है ।जगत के ताप से तप्त मन --प्राण तुम्हारी कथा से शीतल हो जाते है ।"

"मैं तो तुम्हारी हूँ ।तुम जैसा चाहो , वैसे ही रखो ।बस मैनें तो अपनी अभिलाषा आपके चरणों में अर्पण कर दी है ।""

क्रमशः ...................
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥ क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥

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