नभचर
अनहद गाते
सुनाते नभचर
नाद
रुकता कहाँ है अनहद
बहता रहता है
लगता है यूं
नभचर उसे छुते हो
चहचहाहट सरल नहीं
मानो तरंगें कहीं और सी
भीतर तक जाती
रसीली सी
रोम - रोम सुनना चाहे
कुछ ऐसा
शब्द नहीं
नि:शब्द नहीं
भाव वहीं
जो जाना यूं उड ही चला
कुछ तो गहराई है उनमें
सौन्दर्या - माधुर्या- चंचला
सरलतमा - भावतमा
से नभचर ...
यें ही बातें तो रचनाकार में रही
कुछ तो समीपता है
योग की परिधि के भीतर सा
जीवन रस में इतना उन्माद बहुत है
इन्हें सहज नाचते - गाते देख
चक्षु प्रफुल्लित हो उभर जाते
ऐसा रस कथित् मार्गियों में नहीं
वाद्यों में यें ध्वनि नहीं
ऐसे घुंघरु भी नहीं ...
अनुपम ! असहज ! अपरिमित
हवाओं मे बहते
नाचते - गाते - चहचहाते
नभचर !!
रहस्य है माधुर्य
बिखरने का कोई
सच्चा संगीत
जब वो चाहे
बह चले ...
प्रति पुकार अनहद छुता
सच ...
सौन्दर्य के रचियता
का सच्चा भाव !
"तृषित" सा ही इनका संसार ...
-- सत्यजीत "तृषित"
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