हे खग
हे खग !
कालिख ना खा
कंकर ना चबा
कांटों पर ना बैठ
विष्टा स्वाद ना कर
ख़्याल रख अपने सौन्दर्य का
तेरा कुछ अब रहा नहीं
हर प्रयास अब चोरी होगा
उस तक रस पहुंचा है
उसे देना है तो
आनन्द दे
नभ चुम
झरनों पर झुम
राग अलाप
निश्पक्ष नाद उठा
सब भेंट होने को है
सो
कीचड नहीं फुलवारी
पर उड !!
जब दे ही रहा है तो कीचड ना दें
लेने वाला ले लेगा
देने वाला भाव मोती ही देगा
तो वहाँ मुस्कुराहट ही नहीं
आंसु भी होंगे
सत्यजीत "तृषित"
Comments
Post a Comment