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ईत्र का तालाब ना महका
नगीनों की नाव ना चली
चन्दन के शहर में ना मिलें
मोतियों का महल को छोड चुकें
केसर का फर्श पर द़ाग थे
नीलम का गगन धुंधला सा गया
कदम्ब की छांव में जब निहारा
पिया-प्रितम मिलन वहीं पर उभारा
झरी सी बह चली अविरम सुख पाकर
कैसे तब भी स्पर्श करता
तृषित मन काजल कटौरी रहा
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