मिलते हो कि ... प्रेम कविता
मिलते हो कि रुलाते हो
छुते हो या सताते हो
दृग तिरछे क्युं करते हो
धार पैनी करते हो
ना देखो तुम भी छिप कर
ना देखुं मैं भी तुम्हें पलट कर
हाय यें पीर बिन भी ना जीना
हाय तुम संग भी सांसे ना ठहरना
हिय बिन छुये भी पाये ना चैना
छुते ही हलचल थमे ना
मन तो है लिपट जाऊं
महक से ना घबराऊं
बिन पुछे सिमट जाऊं
पर हिय बिन कैसे पग बढाऊं ...
श्री सेवा करने दो पिया
जाओ इन संग मोहे
ना छेडो पिया
मैं तो दरस की प्यासी
निवृत युगल छवि ही चाही
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