प्रेम , आखिर है क्या यह प्रेम , और भावराज्य , तृषित

प्रेम , आखिर है क्या यह प्रेम ।
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क्या प्रेम का कोई शास्त्र है , क्या प्रेम पर कहने हेतु कुछ दर्शन शास्त्र अध्ययन कर लेने पर वह समझ आ जाता है क्या ?

प्रेम जीवन का पन्ना नहीं , वास्तविक जीवन का अर्थ प्रेम है । जीवन शब्द में रस लालसा है , वह अप्राप्य , बोध से परे की अवस्था प्रेम ही है । प्रीति जीवन है ।
प्रेम से शेष जड़ता है और जड़ता मृत्यु है । आत्मा नित्य है और अमर है क्योंकि वह प्रीतिमय है , प्रीत की ओर उसकी स्वभाविक लालसा है ।
प्रीति से परे कोई अमृत नहीं ... आत्मा अगर प्रीति से पृथक हो जावें तो वह चेतन न रहेगी । चेतन प्रत्येक तत्व में एक लालसा है - न्युट्रान , प्रॉटोन , इलेक्ट्रोन का परस्पर सम्बन्ध है । यह परमाणु की न्यूनतम प्रकट अवस्था उसकी प्रेम के उछाल को कहती है ।
मनुष्य के देह से अनेक स्राव होते है , परन्तु वह जीवन प्रकट नही करते है , जैसे स्वेद अणु .. पसीना उस के निकलने पर भी प्रेम रस वर्धन हो वह रस अवस्था हो जावें तब वह भी सजीव होगा । अतः दिव्य अवस्थाओं स्वेद अणु और अश्रु से भी सृष्टि हो जाती है । वस्तुतः प्रेम के अणु की व्यक्त स्थिति में सृष्टि होती है और वही प्रेम के अणु अव्यक्त हो उनमें स्वेच्छा न रहे प्रियतम सुख रहे तब वह रस होता है । प्रेम में कामना का अणु गिरने से रजो गुण के प्रभाव से काममय सृष्टि होती है ।
प्रेम में कामना के सम्पूर्ण अणु निर्गलित हो तत् ईच्छा ही रह जावें तब वह रसमय सृष्टि करता है ।
काम मय सृष्टि से रसमय सृष्टि की आत्मा की वास्तविक ईच्छा है , जो जड़ देह में अपनत्व से जड़त्व में कुछ खोजती फिरती है । वह चेतन तत्व रस रूपी प्रेम है और रस ब्रह्म के प्रेम रसास्वादन की अवस्था ही है । जगत् और रस में यही भेद है एक अभिव्यक्त है एक अनुभूत है । सत्य अनुभूत है पर प्रकट अभिव्यक्त ही होगा इस अभिव्यक्ति की पकड़ से उस रस तत्व की अनुभूति क्या है यह पता चल जावें वही उसका भावराज्य है । ... भाव मतलब जो कहते न बने पर है वह भावराज्य । रसराज्य जहाँ स्व की कही भी ईच्छा नहीं , आज कुछ भाव में भावराज्य में भी ईच्छामय होते है , वह ईच्छा होना ही उसे भावराज्य से सृष्टि (जगत रूप) कर देता है । ईच्छा है तो जगत है , ईच्छा नही तो रस है रसराज है और उनकी रस प्रवाहिनी सार श्यामा सरकार है ।
एक बात और यह श्यामसुन्दर दृश्य होते है इसका कारण ही उनका श्री किशोरी जी का दर्शन करते रहना है । अगर किशोरी जु उनकी आँखों के समक्ष न हो तब वह इतने दिव्य प्रकाशित होते है कि जगत चक्षु क्या भाव चक्षु से भी देखे नही जा सकते इतने आलोकित । श्री जी उनसे और गहन आलोकित है और उनके आलोक प्रकाश में माधुर्य भी है जैसे चाँदनी के आलोक में अनुभूत होता । जो चाँद देह चक्षु से दिखे वह जगत का और जो रसमय प्रेम चक्षु से भावराज्य में दिखे वह कृष्णचन्द्र है ।
तो वह दीखते है श्री जी संग है सो , वह श्याम हमारे आगे नही श्री जी आगे है । चन्द्र सूर्य से श्यामल है क्योंकि जब वह सूर्य है तो स्वप्रकाश से । और जब चन्द्र है तब श्री जी संग से चाँदनी से चाँद दृश्य है । इसलिये ही श्यामल है क्योंकि चाँदनी की चाँदनी चाँद की उज्ज्वलता से अधिक है ।
श्री कृष्ण प्रेममय है सो श्री जी के गौर वर्ण आगे कुछ श्यामल है । श्री जी उनके तन मन में न हो तो वह किसी चक्षु से दृश्य नही होंगे इतने आलोकित है , अतः श्री जी का दर्शन असहज है वह श्यामसुन्दर को श्याम कर देती है तो वह कितनी दिव्य प्रकाशित होगी । श्री जी क्यों दृश्य होती है इसका भी कारण है ...  वरन् उनका माधुर्य और आलोक दोनो ही मानव क्या उसके चेतन तत्व के सामर्थ्य से भी परे है । सत्यजीत तृषित

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