का करूँ वैकुण्ठ जाय ... trishit
का करूँ वैकुण्ठ जाय ...
ऐश्वर्य की पराकाष्ठा ही जीव की आंतरिक अभीप्सा वस्तुतः अभीप्सा माधुर्य है परन्तु जब तक वह ऐश्वर्य की अभीप्सा पूर्ति में श्री लक्ष्मी का वैकुण्ठ में सेवक हो फिर भाव विकास से लक्ष्मी भावापन्न हो अग्रिम विकास में माधुर्य की अभीप्सा को ना समझें तब तक वास्तविक माधुर्य लालसा जागृत नहीं हो सकती । क्योंकि श्री लक्ष्मी में जितनी माधुर्य अभीप्सा से उतनी कही नहीं , उन्हीं की भावना का विकास माधुर्य रस है श्री ऐश्वर्यधिश्वरी का यह रज विकसित होकर निर्गुण निकुँजधिश्वरी श्यामा होता है । अथवा वह अपनी ऐश्वर्य विकास यात्रा को तिरोहित कर माधुर्य यात्रा हेतु ललिताम्बा से विनय करें , वरण विकास यात्रा पहले उसे ऐश्वर्य का ही विकास करेंगी , एक स्वर्ण पिंजरे में बन्द स्वर्णमयी स्वर्गीय सारिका(मैना) का माधुर्य विलाप सच्चा होगा क्योंकि वहाँ सहज रूप माधुर्य प्राप्त नहीं ।
ऐश्वर्य की पूर्णता से उठकर माधुर्य का विकास है । ऐश्वर्य का सर्वतोभावेन सहज त्याग से भी माधुर्य प्राप्त होता है । परन्तु यह त्याग माधुर्य के अनुराग में स्वतः हो जाता है ।
दिव्य वैकुण्ठ धाम , ऐश्वर्य का पूर्णतम विकास है । और उसी में आंतरिक उठने पर माधुर्य राज महावृन्दावन धाम प्रकाशित होता है ।
हम संसारी बार बार कह तो देते रसिक वाणियों में ... का करूँ वैकुण्ठ जाय ... आदि -आदि ।
कोटि कोटि चिंतामणि वारूँ ।
वस्तुतः हम अपने आराध्य को दिव्यतम् प्रकाशित करने हेतु ऐश्वर्यधीश्वरी महालक्ष्मी को बड़ी सहजता से श्री किशोरी जु की दासी भी कह देते और सुनते भी ।
परन्तु क्या यह सब स्वीकार करते , लक्ष्मी की उपेक्षा से भाव का विकास कैसे होगा ? वह तो महाशक्ति है और कारणरूपा है , यहाँ यह बात बाहरी कथनों से नहीं , उपासना की गहनता हेतु ही प्रकाशित है कि माधुर्य साधना हेतु ऐश्वर्यधिश्वरी भाव में माधुर्यधिश्वरी की सेवा हो रही अतः स्वभाव को महाभाव तक जाने में एक लम्बी यात्रा करनी है ।
वैकुण्ठ धाम ऐश्वर्य राज्य का दिव्यतम् विकसित रूप है , जीव बड़ा कहता है आज स्वयं को रस उपासक सिद्ध कर के कि वैकुण्ठ का वह त्याग कर सकता है । यह बात जब ही हो सकती जब तक वैकुण्ठ का दर्शन तो हो , वैकुण्ठ आपके लिये खुला तो हो , वहाँ की दिव्य ऐश्वर्य विकास को देख आप का माधुर्य न डिगे , न हिले तब सहज नित्य वृन्दावन प्रकाशित होगा ।
कहना सरल है , आंतरिक रूप से जब भाव राज्य में स्वयं ऐश्वर्याधिश्वरी कृपा कर अपनी सत्ता से ऊपर माधुर्य की प्यास जान आपको आशीष ना दे तब तक ऐश्वर्य तिरोहित नहीं होगा ।
आज ऐश्वर्य को दिन रात त्यागने वाले हम , बार बार चीख कर भजनों में कहने वाले हम कि हम यह छोड़ देंगे वह छोड़ देंगे या छोड़ चुके ऐश्वर्य को क्या कागज को नहीँ छोड़ पाते । वाणी से वैकुण्ठ का त्याग करते और कागज बीनते - फिरते इस तरह माधुर्य उपासना नहीं होती । लौकिक ऐश्वर्य पूर्ण विकसित हो जावे , श्री मुकेश अम्बानी जी के घर में निवास मिल जावें फिर कोई टटिया स्थान या गहवर वन के लिये रोये तब माधुर्य है ।
सत् रज तम की सत्ता का दिव्य वृन्दावन में प्रवेश नहीं , सत्ता का प्रवेश नहीं यह सत्ताधिपति माधुर्य में सेवक - चाकर - द्वारपाल हो सकते है , सत्-रज-तम के सत्ताधिपति भी सत्ता से ऊपर उठ व्याकुल भाव से ही माधुर्य में होते है । वृन्दावन के विलास को झूठ-मुठ बढ़ा चढ़ा कर नहीं कहा शास्त्रों ने कि कोटि लक्ष्मियां वहाँ सेवातुर है , और प्रवेश नहीं पा रही । यह बात इस बात को सिद्ध करते हुये कही जाती है कि हमने वह पा लिया जो लक्ष्मी स्वयं नहीं पा सकी , जबकि मुझे लगता है यह सिद्ध करती है कि माधुर्य ऐश्वर्य की पूर्ण विकसित अवस्था का फल है , अर्थात् यह नहीं बाहरी साधन साधक जुटा लें परन्तु एक बार उन महालक्ष्मी और उनकी विलास भूमि और नारायण का भाव में दर्शन कर , उनसे ही माधुर्य फल की भिक्षा माँगे ।
कागज के रूप में श्री लक्ष्मी की छाया को तिरोहित न कर सकने वाले हम वास्तविक परिपूर्ण दिव्य आभामय ऐश्वर्या श्री लक्ष्मी के दिव्य दर्शन कर परिणाम में माधुर्य की भिक्षा सहज नहीं ।
आज हमने माधुर्य को निमित और उसका फल ऐश्वर्य सिद्ध कर दिया , माधुर्य राज रसराज की लीला चरित्र रट कर उनकी परिणीति में भीतर ऐश्वर्य फल की भावना रहने लगी है । यहाँ वास्तव में माधुर्य प्राप्त नहीं है , केवल धारणा है कि मुझे रसराज प्राप्त है और इस धारणा के प्रतिफल में भी लौकिक ऐश्वर्य मिल रहा है क्योंकि मूल में ध्येय यही है । माधुर्य की वास्तविक प्राप्ति पर जो ऐश्वर्य प्राप्त भी हो , प्रसाद में भी मिलें तो वह प्रसाद भी पुनः पुनः अपने युगल रस में ही अर्पण होता है , स्व से उसका कोई सम्बंध नहीं क्योंकि स्व का रस तब केवल युगल चरण रज कण होना है ।
वाणी से दिव्य वृन्दावन के लिये साधक अति दिव्य वैकुण्ठ धाम त्याग रहा और लौकिक रूप से देहली , मुम्बई , अमेरिका क्या झुग्गी झोपडी छोड़ना बस की बात नहीं ।
एक तरफ भीतर वीज़ा पासपोर्ट की अपील और प्यास और बाहर नारे के रूप में "दीजो वृन्दावन वास" । लौकिक विलास (भुक्ति) तज नहीं रही अपितु आंतरिकता में उसी के विकास हेतु सब चाह हो रही और बात होती मुक्ति के त्याग की , वैकुण्ठ के त्याग की ।
आज का आदमी शादी पार्टियों आर्टिफिशल ऐश्वर्य को देख बावरां हो जाता है , फिर वह ऐश्वर्य राज्य वैकुण्ठ का त्याग चाहता है , चाहता है कर नहीं सकता क्योंकि वैकुण्ठ का विलास त्यागना असम्भव है और केवल वास्तविक माधुर्य रस उपासक आंतरिक रूप से इस अवस्था से ऊपर उठ निकुँजधिश्वरी की सेवा होती है । पुनः बार बार मनन करें - ऐश्वर्य के विकास का फल माधुर्य है , आंतरिक माधुर्य यात्रा में ललिताम्बा से माधुर्य याचना परम् आवश्यक ही है । त्याग वाणी मात्र नहीं लौकिक भी नहीं भाव रूप हो । लौकिक त्याग लोक की प्रतीति को सत्य मान लिया गया यह ही सिद्ध करेगा , आंतरिक त्याग की सिद्धि से आवश्यक लोक स्वतः विकसित हो माधुर्य भूमि में समा जायेगा ... जय जय श्यामाश्याम । जय जय वृन्दावन । सत्यजीत तृषित ।
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