प्रेम रस में उलाहना ... तृषित
प्रेम रस में उलाहना या रूठ जाना जायज सी बात है । पर प्रेम में उलाहना एक गहन अवस्था है , इसमें आंतरिक पीड़ा है जिससे अपने प्राणों से प्रिय वह प्रियतम , जिनके लिये किसी अन्य के द्वारा कुछ सुनते ना बने , उनसे ही मान करना कुछ उलाहना देना भी सहज भाव नही , प्रेम है तो सहज नही , वैसे तो हम सब किसी न किसी की निंदा स्तुति करते ही है न, पर प्रियतम की निंदा स्तुति दोनों ही असहज है । फिर भी उलाहना का यह अर्थ नही कि रोष में प्रकट दोष उनमें है ही , उलाहना इसलिये प्रेमी देते है क्योंकि उसमें पीड़ा है , मिलन तो हो गया अब इसमें गाढ़ता हेतु रस विच्छेद हो , जिससे अन्तः वेदना बढ़े कि मैंने ऐसा क्यों किया और प्रेम रस की वृद्धि हो ।
यह मिलन में वियोग की भावना सा ही उद्दीपन देता है । अतः मान और उलाहना प्रेम वर्धक है ।
वास्तव में प्रेमी स्तुति ही नही कर पाता , क्योंकि स्तुति में एक परिधि बनती है और प्रेमी कैसे अपने प्राण नाथ को किसी धारणा में या उपमा में देख लें , वह तो निरुपम माधुर्य में डूबी निः शब्द अवस्था है ।
जब स्तुति ही असहज हो , अथवा स्तुति होने पर आंतरिक दैन्यता संग रस संचार भी बढ़ता जावें । जब स्तुति करने पर भी स्तुति और भावना से असमर्थता और अयोग्यता बनी रहे , कलात्मकता नही भावात्मकता ही प्रकट हो तब दिव्य स्तुति होने पर भी अपना हृदय ही उसे आत्मसात् नही कर सकता ।
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