भक्त कौन है , तृषित

भक्त कौन है ?

नित् सत्य का बोध हो , सदा चेतन से प्रीत हो और नित्य आनन्द अनुभूत हो ।
भक्त वह जो विभक्त नहीं , भक्त वह जिसने राम रूप अमृत को पा लिया , जिससे मृत्यु छूट गई । जो राम का नहीं वही मरता है , जो राम का हुआ वह तो राम ही हुआ ।
भक्त वह जो आंतरिक रूप से इष्ट की ही वस्तु सदा हो , अनन्य रूप । और इष्ट के अतिरिक्त कुछ दृश्य भी ना हो ।
जो किसी का नही है , वहीँ मुक्त है और जो मुक्त है वही सबका है , जो सबका है वही पुनः किसी का नहीं ।
जीव को याद भी नहीं वह कितने खुंटों से बन्ध गया । अतः यह भक्ति नहीं , मेरा यह मेरा वह ... जिसके बहुत सा मेरा दुनिया में हो उसने तो संसार को सत्य ही जाना ! जो राम का हुआ फिर वह किसी का नही और राम ही जिसे दिखने लगे फिर जगत नही दिखेगा , राम दिखेगें । जगत और राम में भेद ही हो तब भक्ति जगत की ही होगी । वास्तविक राम में भक्ति से जगत रहता ही नही ... राम ही जगत और जगत ही राम हो जाते है । प्रेमी को प्रियतम बिना सुंदर दृश्य भी नहीं दीखता और प्रियतम संग कैसा भी दृश्य ही सुन्दरतम होता है , भक्त के संग प्रियतम नित्य है अतः उसके नेत्रों की सुंदरता नहीं हटती वह तो श्मशान को भी कह सकता है बहुत सुंदर ... !! जिनका भगवत् सम्बन्ध नहीं हुआ उन्हें भक्त और पागल में अधिक फर्क नही पता चलेगा । क्योंकि जिसका आनन्द नित्य हो जावें वह संसार हेतु रहता नहीं , संसार का सूत्र तो बदलना है - सरकते रहना - अस्थिर होना । जो आनन्द पर नित्य हो गया वह रोयेगा भी तो आनन्द ही विकसित होगा और हँसेगा तो भी आनन्द ही होगा । आनन्द पुनः दुःख पर लौटता नहीं है , भक्त वह है जिसका प्रियतम संग आलिंगन हो चूका , स्पर्श हो चूका और अब वह उन्हीं स्मृतियों में है और वही प्रियतम हर रूप दिख रहे जो कि प्रेम में कोई पागलपन नही , बल्कि सत्यता है जगत् विलीन हो कर सत्य का रह जाना । हर डाल पात , प्राणी में उसे अपने मूल प्रियतम की ही आभा दिखती उनका ही होना दीखता , उन्हीं हेतु सब दीखता और सब कुछ जहाँ एक ही रह जाता ।
भक्त वह है जो इसे जीवन्त जी सकें .... मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोय ।
इस तरह हर रूप - रंग और शब्द जो जी रहा अपनी अनन्त प्रियता को , वही भक्त है । जिसकी हर चाल ढाल , हर क्रिया अपने मेहबूब के लिये हो ... अपने प्रियतम हेतु हो ।
भक्त का संसार उसके आराध्य - प्राणनाथ है , दूसरा कोई संसार नहीं जिसका वह भक्त है ।
जिसके कानों में ईश्वर के शब्द ध्वनित होते हो , जिसके हृदय ने हरि से सुन लिया कि हरि ने कहा भीतर से करीब आ कर ... तुम सिर्फ मेरे हो । और हो गया वास्तविक पाणिग्रहण अपने सच्चे संगी संग जिसका वह संगिनी भक्त है ।
--- सत्यजीत तृषित

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