श्रवण रस , वह ही सुनते है , तृषित ।

प्रेम रस में उलाहना या रूठ जाना जायज सी बात है । पर प्रेम में उलाहना एक गहन अवस्था है , इसमें आंतरिक पीड़ा है जिससे अपने प्राणों से प्रिय वह प्रियतम , जिनके लिये किसी अन्य के द्वारा कुछ सुनते ना बने , उनसे ही मान करना कुछ उलाहना देना भी सहज भाव नही , प्रेम है तो सहज नही , वैसे तो हम सब किसी न किसी की निंदा स्तुति करते ही है न, पर प्रियतम की निंदा स्तुति दोनों ही असहज है । फिर भी उलाहना का यह अर्थ नही कि रोष में प्रकट दोष उनमें है ही , उलाहना इसलिये प्रेमी देते है क्योंकि उसमें पीड़ा है , मिलन तो हो गया अब इसमें गाढ़ता हेतु रस विच्छेद हो , जिससे अन्तः वेदना बढ़े कि मैंने ऐसा क्यों किया और प्रेम रस की वृद्धि हो ।
यह मिलन में वियोग की भावना सा ही उद्दीपन देता है । अतः मान और उलाहना प्रेम वर्धक है ।
वास्तव में प्रेमी स्तुति ही नही कर पाता , क्योंकि स्तुति में एक परिधि बनती है और प्रेमी कैसे अपने प्राण नाथ को किसी धारणा में या उपमा में देख लें , वह तो निरुपम माधुर्य में डूबी निः शब्द अवस्था है ।
जब स्तुति ही असहज हो , अथवा स्तुति होने पर आंतरिक दैन्यता संग रस संचार भी बढ़ता जावें । जब स्तुति करने पर भी स्तुति और भावना से असमर्थता और अयोग्यता बनी रहे , कलात्मकता नही भावात्मकता ही प्रकट हो तब दिव्य स्तुति होने पर भी अपना हृदय ही उसे आत्मसात् नही कर सकता ।

वह सुनते नहीं ... यह उलाहना प्रेममयी है तब सुंदर है ।
वास्तव में तो सब जानते ही है , उनका प्रेम किससे छिपा है , वें वह सब भी सुनते है जो उनसे नहीं कहा गया , भले न सुनने का अभिनय कर लें पर उनसे छिपा क्या है ?
और वह वो भी सुनते है जो किसी से नही कहा गया ,
और तो और वह वो भी सुनते है जो खुद से भी नही कहा गया ।
वह वो भी सुनते है जो कभी हलक से निकलेगा ही नही ।
उनसा श्रोता कौन , जीव कितनी ही श्रवण भक्ति कर लें , उनकी श्रवणा को पार नहीं कर सकता ।
वह इतना सुनते ही कि साँसों के अहसास से अपने प्रेमीजन की अन्तः स्थिति पढ़ बैचेन भी हो उठते है । कहने को वह ईश्वर है पर वास्तव में वें निर्मलतम दुर्लभतम् प्रियतम है । उनके प्रेम के समक्ष संसार में दूसरा कुछ भी नहीं , उनमें भी कुछ सर्वाधिक दिव्य है , दिव्य अर्थात् जो इंद्रिय आदि से पकड़ नही आ रहा तो वह उनका प्रेम ही है । उन्हें अपने से छुटे जीव की निंदा स्तुति तक का भेद नही पता । अतः शिशुपाल से दुर्भावना को भी वह स्तुति की तरह शतनाम कर दिए । उन्हें कुछ भी कह लो , बुरे से बुरा , इतना बुरा जितना जगत में क्यों सुने , तब भी उनके ऐसे आलोचक जीव के लिये भी उनके प्रेम सागर से बूँद भी कम ना होगी अपितु उन्हें कोई समझ सकें तो उनका रस वर्धन ही होगा उनका प्रेम और गहरा हो जाएगा। कहेगें - तुमने मुझसे बात तो की , अब क्या बात की यह विषय बड़ा नही , बड़ा विषय है तुमने मुझसे बात की ।
उन्हें सुनाने वाले बहुत है , कुछ बुरा हो जावे तो निंदा और कुछ लोभ हो तो स्तुति उन्हें सुनने वाला प्रेमी ही दुर्लभ है । वह बहुत सुनते है , बहुत । कोई सीमा नहीं ... । कोई क्षमता नही । पर वह बोलने लगे वही उनकी लीला होगी । बोलते जाएं बस बोलते जाये ... और प्रेमी उन्हीं की भाँति मुस्कुराहट से उन्हें सुनता जावें , सुनता जावें , उनकी सुने , उनसे सुने । वो जो कहेगे वह सब कुछ शास्त्र सार होगा । बल्कि बहुत अप्रकट स्थितियां होगी । जीव को स्व कर्म रूप स्व के प्रदर्शन से फुर्सत हो और वह वास्तव में कभी किसी दिन उन्हें कहना बन्द कर सुनना शुरू करें और बिन रोकें उन्हें ही सुनता जावें तो उनकी अन्तः वेणु से सब स्पष्ट सुनाई आएगा ।
आपकी मोहब्बत आपसे अपनी हर अनकही कह दे , यह श्रवण भक्ति की सार्थकता है और यह ही प्रथम स्तर है , फिर आगे श्रवणा ऐसी हो कि कहा कुछ भी जावें सूना वही जावे अपने प्रियतम का नाम । कुछ भी बात हो , नाद हो , शोर हो , श्रवण नाम रस हो । संसार जो कहता हो वो नहीं जिसे सुनना हो वहीँ सुनना यह श्रवण भक्ति होगी , विभक्ति का लोप भक्ति है श्रवण में भेद हट जावें , श्रवण विभक्ति हुई भाँती भाँति ध्वनियों से प्रेम रस होगा वही सुनने से जो सुनना प्रिय हो शेष शब्द वैसे ही बाहर की बाहर रह जावें जैसे हम पक्षी आदि स्वर पर ध्यान नही देते अर्थात् श्रवण इंद्रिय एक जगह थिर हो जावें उसमें धाराप्रवाह रस बहे , जगत की नही उनकी सुने ... प्रियतम कह रहे वह सुने और प्रियतम का नाम रस ही सुनाई आवें । जय जय श्यामाश्याम ।सत्यजीत तृषित ।

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