शरणागत ही वास्तविक वेदना और उत्कंठा को जीवन्त करता है , तृषित
शरणागत ही वास्तविक वेदना और उत्कंठा को जीवन्त करता है ।
जिसे केवल भगवत् चरण आश्रय हो वहीँ बार-बार भगवत् चरण अनुराग की भीक्षा चाहता है ।
जो सब भूल जाना चाहता हो वह सब भूल ही जाता है ।
जो पुकारना चाहे वह उनके आगोश में ही उन्हें पुकारता है ।
जिसे केवल प्रियतम से रस हो वही बार बार अन्य रस का त्याग चाहता है ।
जिसके पाप हर लिये गए हो वही स्वयं को स्पष्ट पापी भी मानता है ।
जिसे परम् का रस लग गया हो वही अणु मात्र अनुभूति करता हुआ सरलता से दैन्य में रहता है ।
जिसे सर्व रस सार युगल रस प्राप्त हो वहीँ अकिंचनत्व के भाव को सजीव कर पाता है ।
जहाँ वास्तव में निर्गुणता हो वहां गुण होने पर भी स्व दोष से हृदय छलनी होता रहता है और स्वदोष दर्शन होने से प्राप्त दिव्य रस हरि की कृपा स्पष्ट दिखती है , प्राप्त रस में जब स्व को हेतु देखा जावें वह प्रेम अवस्था नहीँ , अपनी अयोग्यता और हरि की करुणा के दर्शन से हृदय से नेत्र तक गीलापन सा बना रहें ।
पुकारने वाले को वह प्राप्त ही है , प्राप्त अवस्था में ही सच्ची पुकार उठती है , वह प्राप्त है पर भाव में विरह होने से सच्ची पुकार सुलगती है ।
पुकार उठी क्योंकि पुकार की महिमा का प्रेमी ही रस ले सकता है और जगत को दे सकता है ।
प्रेमी प्रचारक नहीँ होता परन्तु सहज प्रेममयी अभिव्यक्तियां ही दिव्य को प्रकट कर सकती है ।
प्रेमी को भय रहता है , प्रेम बिन वह कुछ नही अतः नित्य भगवत्-संग वृद्धि उसकी आतुरता रहती है । और नित्य ही स्वभाव में अभाव अनुभूत होता है ।
प्रेमी का संसार भगवान ही है , अतः वह इस जगत में होकर भी खोया रहता है और व्याकुल रहता है , भगवान के संग को पाने का लोभ भी उसे ही होगा जिसे जगत् का संग न हो और जिसे जगत का संग नही वही भगवत् संग स्वतः ही हो जाता है ।
खोता भी वहीँ है , जिसे कुछ प्राप्त तो हुआ हो । अतः प्रेमी भगवान के खो जाने के भय को कभी-कभी विचार कर तड़प जाता है जबकि भगवान तब भी संग है , विचार मात्र से वह व्याकुल होता है ।
भगवत् विमुख जगत स्व को रस देने में ही सार समझता है , जो अपना सुख खोजता हो वह प्रेमी कभी नही होगा , प्रेमी सुख का त्याग निर्विकल्प कर सकता है और भगवत् विरही ही प्राण रहित जीवन का अर्थ भलीभाँति जानता है , तब प्राण और भगवान दो नहीँ रहते ।
भगवान प्राप्त न हो तब तक उनके संग न होने का कोई अर्थ समझ नही आता और जिसे उनका स्वाद लग गया हो वह और किसी स्वाद से कभी तृप्त नही हो सकता ।
प्रेमी को भगवत् संग की अनुभूति के अतिरिक्त कुछ नही चाहिये , वह अनुभूति अगर भगवत् सन्मुख न होने पर भी मिलने लगे तो तब भी भगवत् संग ही है ।
भगवान नित्य संगी है , कभी विरह होता ही नहीँ परन्तु प्रेमी में स्व में अभाव और दीन-हीनता दर्शन होने से विरह जाग उठता है , भगवान का स्वरूप जितना प्रगट होगा प्रेमी उतना पिघलता जायेगा । दीनता का उदय भी भगवत् स्पर्श से ही होगा , जितना भगवान छु गए उतनी दीनता ।
अहंकारी या हठी के सन्मुख भगवत् रस-गुण लिखित शास्त्र में पढ़कर या सुनकर भी भीतर नही उतरता और प्रेमी को शास्त्र का भान न होने पर भी भगवान का दिव्य यथार्थ स्वरूप नित्य बढ़ता हुआ ही मिलता है ।
और एक बात वास्तविक भगवत्प्रेमी कभी स्वप्न में भी नहीँ चाहेगा कि जगत मुझे स्वीकार करें , वह सदा यहीं चाहेगा कि भगवान को कभी न भूलूँ और उनके सुख के लिये ही जीवन के सब रस हो , जीवन में सुख हो और भगवान को उससे रस न मिलता हो तो वही प्रेमी के लिये विष है । सत्यजीत तृषित ।
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