श्री कृष्ण को क्या देना , और उन्होंने क्या लिया ?
कभी यु भी आना मेरी नज़र में कि मेरी नज़र को ख़बर भी न हो ...
इश्क कुछ ऐसा ही है न । पर क्या हम सब भगवत् प्रेमी है ? अपनी कहु नहीं , असम्भव है । यह जो मेरे भीतर है यह तो परम् सत्ता के प्रति आकर्षण है सम्भवतः । प्रेम तो नव रस का सार भुत रस है । कुछ विद्वान् प्रेम को नव रस का सार कहते है , कुछ उससे परे । जो भी हो सत्ता लोलुप्ता का आकर्षण और प्रेम यह दो अलग भाव है । श्री गोविन्द के पास देने को है और हमारे पास चाहतें । अगर उस और देने को न हो और हमें चाहत न हो तब प्रेम हो । भगवत् प्रेम कहने में ही उनकी भगवान होने की भावना में सर्वोच्च सत्ता का आकर्षण है । हममें बहुत से तो स्वयं को पृथक जान मनोकामना करते है । अभिन्नता में दो भिन्न मन होते कहाँ है , और न ही भिन्न भावना और कामना ।
वस्तुतः देने वाला प्रेमी होता है , प्रेम भोग नही पर प्रेम में अपना सर्वस्व देना होता है , सबसे बड़ी बात अपना अस्तित्व भी पृथक लगें तो प्रेम नहीं ।
तुमने मेरे लिये क्या किया ?? ... यह प्रेम नही । मैंने तुम्हारे कुछ नहीं किया , अपितु सम्भव भी नहीं क्योंकि तुम्हारे लिये कुछ भी करने हेतु मेरा कुछ तो हो , और सत्य यह है कि कुछ भी नही तब मेरा , सब कुछ उन्हीं का ।
विचार कीजिये प्रेम में नित्य नव त्याग है , नित्य देना ही देना । प्रेम भी हो और लेना भी हो तो यह तो भोग है , जगत का कथित प्रेम है जो कामना में डूबा है ।
कल एक लेख पढ़ा ... उसमें एक वाक्य था ... "प्रेम केवल भोग नहीं" यह बता रहा कि जैसे भोग है पर केवल भोग नही है ... *प्रेम के किसी अणु में भोग नही* । *अगर एक भी अणु में भोग हो , कामना हो तब वह वासना है , काम है ।*
हम स्वयं को अगर नित्य सिद्ध कर रहे है कि हम भगवत् प्रेमी है तो हम भगवान को दे क्या रहे है ... *प्रेम तो कहता है न ... देना ही देना ।*
हम लेन-देन चाहते है , इसी पर विश्वास है । *वास्तव में सामने जो है वह बड़ा चतुर है , वह है प्रेमी और सिद्ध स्वयं को व्यापारी करता है ...* अतः सब नाना साधन से व्यापार करते है , हम धर्म करते है कामना पूर्ति हेतु , और धर्म होता है कामना निवृत्ति हेतु । अतः हमारे सब साधन व्यापार है , हम भगवान को कुछ देना नहीं चाहते , बल्कि देने से कुछ मिलेगा ही यह विश्वास से कुछ देते है और इस देने में लेना है और जिस देने में लेना है वह प्रेम नहीं ।
अब सामने देखिये ज़रा दुनिया नाना विधि कर रही है , नाना साधन , तरह तरह के उपाय , लाख से अरबों तक के आयोजन , पर इससे यह दुनिया सोचती है हमने कुछ दे दिया , समझदार लोग इसे कर्म कहते है । कर्म कहते ही कर्मफल मनोभाव में होता है । कोई मजदूरी करते समय ईंट पत्थर मन में नही रखता उससे मिलने वाली वस्तु ही । वास्तव में भगवान साध्य नहीं , साधन हो गए है , भगवान तो वह वस्तु है जो भगवान से चाही गई ।
व्यापार अपनी वस्तु से होता है यहाँ लेनदेन को कुछ तो अपना हो । उनकी वस्तु को मेरी कहना और इस तरह से देना जैसे गिफ्ट की हो जबकि है उन्हीं की ... और उनका इस तरह से लेना पूण्य देकर सिद्ध करना जैसे उनकी वह नहीं हो , उनसे पृथक आखिर है क्या ??
अब यहाँ से एक बात और क्या इस देने लेन में भगवान लेते है , अग़र ले ले तो क्या वह प्रेमी होंगे परन्तु बड़े-बड़े संग किये इस दास ने बहुतों को लगता हम जो देते है वह ले लेते है । गीता में उन्होंने कहा भी है पाप - पूण्य नहीं मुझ तक आते है । और लेन देन करने वाले पाप से मुक्ति और पूण्य ही तो चाहते है , पाप - पूण्य का गहनता से मनन हो तब लगेगा कि दृष्टि भेद है बहुत बार पूण्य भी पाप लगता है और पाप में भी पूण्य होता है ।
पर पाप पूण्य का सम्बन्ध प्रेम से ज़रा भी नहीं है , यह भू - भुवः - स्वः लोक तक गमन करते है बस ।
कामना से किया हुआ भाव कर्म कहा जाता है , और भावना से जिया हुआ पल प्रेम कहा जाता है । कर्म वालें कर्म करते है रिजल्ट के लिये ।
प्रेम वाले वही सब करते है परीक्षा भी देते है रिजल्ट नही चाहते ।
ईश्वर तक वास्तव में कुछ पहुँचे तो वह देंगे तो केवल वह अपना प्रेम होगा । और जगत में देखने पर गाडी बंगला व्यापार ईश्वर से मिल रहा , क्योंकि जो किया गया वह उन्होंने लिया नहीं , पर वह भय से ही सही जीव धर्म मय तो है इस हेतु लेनदेन में व्यापारी सिद्ध हो जाते है , जबकि वह लेते नहीं अतः प्रेमी है , और देते ही देते है अतः वही प्रेमी है ।
इन्हें प्रेम करना आसान नहीं , इनका देना रुकता नही और यह कुछ लेते नहीं केवल ... और न ही इनको कुछ देना आसान क्योंकि दी वो चीज़ जाती है जो सन्मुख के पास नही हो , सब कुछ पहले उनका अब देने को शेष क्या है ?
जो दे रहा है वह प्रेमी है , जो लेना चाहता है वो प्रेमी कैसे होगा तब हम कैसे खुद को भगवत् प्रेमी घोषित करते है ? ऐसा क्या है जो हमने अपना दिया हो और उन्होंने लें लिया हो , विचार कीजिएगा ...
उन्हीं का उन्हें देते देते अंतिम वस्तु जो उनकी जान पड़ती हो वही जमा हो तब कही इश्क़ का गुलाब महकें ... इसके लिये लेना रूके तब उनका क्या-क्या यह ज्ञात हो और सब कुछ उनका जब उन तक गया तो जो शेष रहा वह भी दे देना प्रेम का प्रथम बिन्दु होगा फ़िलहाल तो उसी के सामान का लेन देन हो रहा है , क्या कुछ है जो उसका नहीं है ?? बहुत आगे आ गए हम कभी कभी पीछे भी पलट कर देख लेना चाहिये , है न ... सत्यजीत तृषित ।
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